Book Title: Haribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Author(s): Anekantlatashreeji
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trsut
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________________ . दार्शनिकता :- अज्ञानी जीवों के ज्ञानचक्षु को विकस्वर बनाने हेतु षड्दर्शन समुच्चय', अनेकान्तवाद प्रवेश' आदि कतिपय लघुग्रंथो की रचना की जिससे अन्य दर्शनों के मन्तव्यों का समीचीन बोध हो सके और तुलनात्मक दृष्टि से सभी दर्शनों का अध्ययन कर जैनदर्शन की विशिष्टता और श्रेष्ठता को जान सके। इस प्रकार अन्यान्य दार्शनिक मत-मतान्तरों में महत्त्वपूर्ण भूमिका रचने में स्वयं एक ऐसे दार्शनिक बनकर उपस्थित होते है जिनकी दार्शनिकता का समादर प्रत्येक समय ने किया है और करेगा। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय', 'धर्मसंग्रहणी', 'अनेकान्तजय पताका', ललितविस्तरा आदि विस्तृत ग्रंथो में इन्होंने कर्मवाद, आत्मवाद, परमात्मवाद, सर्वज्ञवाद, ज्ञानवाद आदि को निष्पक्ष होकर समीक्षात्मक प्रमाणोंसे समुल्लेखित किया है, जिससे प्रत्येक प्राणी कुमार्ग से निवृत्त बनकर सन्मार्गगामी होकर वास्तविक आत्महित साधना कर सके, जिसका प्रचलित उदाहरण शास्त्रों में संबद्ध है 'ललितविस्तरावृत्ति' को आत्मसात् करके सिद्धर्षिगणि ने बौद्ध धर्म का त्याग करके जैनधर्म को स्वीकार कर लिया तथा उनके मुख से “उपमितीभवप्रपञ्च” में ये उद्गार निकल पडे। अनागतं परिज्ञाय चैत्यवंदन संश्रय। मदथैव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा। तर्क परिक्षण :- आचार्यश्री को इस बात का सदैव ध्यान रहता था कि जो बात कही जाय वह सुपरीक्षित हो, किसी सिद्धान्त को त्रुटिपूर्ण और अपने सिद्धान्त को निर्दोष बताने का एक सर्वमान्य परीक्षात्मक . आधार होना चाहिए / इस दृष्टि से प्रेरित होकर उन्होंने “धर्मबिन्दु' नामक ग्रन्थ की रचना कर यह बताने का सुन्दर सुप्रयास किया कि जैसे कष, छेद और ताप इन तीनों प्रकारों से सुवर्ण की परीक्षा होती है, उसी प्रकार समीचीन तर्कों के आधार पर निष्पक्ष भाव से स्थापना, प्रतिस्थापना और इन दोनों की समीक्षा द्वारा निष्कर्ष प्राप्ति की प्रणाली से शास्त्रविषयों की भी परीक्षा की जानी चाहिए तथा इस प्रकार की परीक्षा से विशुद्ध होने वाले पक्ष को सिद्धान्त का रूप देना चाहिए। धर्मबिन्दु में कहा कि• “विधि प्रतिषेधौ कषः। तत्सम्भवपालनाचेष्टोक्तिच्छेदः। उभय निबन्धनभाववादस्तापः।४४ सश्रद्धेयता :- इनके कृतित्व में सश्रद्धा का भी मूर्तिमान दर्शन हो रहा है। उनका कथन है कि कुछ पदार्थ ऐसे है जो शुष्कतों एवं इन्द्रियों के सन्निकर्षों से परे है, उनका अवबोध मात्र आगमभाव एवं श्रद्धा के .. स्तम्भ पर ही स्थित है, ऐसा “योगदृष्टि समुच्चय'' में आचार्यश्री ने आलेखित किया है। गोचरस्त्वागमस्यैव ततस्तदुपलब्धितः। चन्द्रसूर्योपरागादि संवाद्यागमदर्शनात् / / 45 अतीन्द्रिय पदार्थों का बोध आगममात्र का ही विषय है। क्योंकि आगम वचनों से ही अतिन्द्रिय पदार्थों की उपलब्धि होती है। जैसे कि लोक में भी सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण कौनसी तिथि, समय तथा कितना समय [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI प्रथम अध्याय | 21]