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ज्ञानसार
की तरफ गतिशील होना । बाह्य धन-धान्यादि-संपत्ति और कीति हासिल करने के लिए लगातार दौडधूप करने के बावजूद जीवात्मा के हाथ हताशा, खेद और क्लेश के सिवाय कुछ नहीं पाता । वह प्राकुलव्याकुल और बावरा बन जाता है । मन की व्याकुलता जीवमात्र को ज्ञान में/परब्रह्म में लीन नहीं होने देती। फलत: वह पूर्णानन्द के मेरुशिखर की ओर गतिशील नहीं बन सकता और यदि गतिशील बन भी जाए तो आधे रास्ते में रुक जाता है, ठिठक जाता है, बापिस लौट प्राता है । अतः स्थिर बनना अत्यंत आवश्यक है। यही स्थिरता तुम्हें खजाने की ओर ले जाएगी और दिलाएगी भी !
इसीलिए ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि बाह्य पौद्गलिक पदार्थों के पीछे पागल बने मन को रोको । मन के रुकते ही वारणी और काया को रुकते देर नहीं लगेगी। मन को अपने आप में केन्द्रित करने के लिए उसे आत्मा की सर्वोत्तम, अक्षय, अनन्त समृद्धि का दर्शन करायो।
ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभविक्षोभकुर्चकैः ।।
अम्लद्रव्यादिवास्थैर्यादिति मत्वा स्थिरो भव ॥२॥१८॥ अर्थ : ज्ञान रुपी दूध अस्थिरता रुपी सट्टे पदार्थ से लोभ के विकारों से
बिगड़ जाता है । ऐसा जानकर स्थिर बन । विवेचन : कई सरल प्रकृति के लोग यह कहते पाये जाते हैं कि हम आत्मज्ञान प्राप्त करें और बाह्य पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ भी करें । ऐसे पथ-भ्रष्ट सरल चित्त वाले लोगों को परम श्रद्धेय यशोविजयजी महाराज उनके मार्ग में रहे अवरोध, बाधाएँ और बुराईयों के प्रति सजग कर सावधान करते हैं ।
यदि दूध से छलछलाते बर्तन में खट्टा पदार्थ डाल दिया जाए, तो उसे फटते देर नहीं लगेगी। वह विगड जाएगा और उसका मूल स्वरूप कायम नहीं रहेगा । फलतः उसको पीने वाला नाक-मौं सिकोडेगा । पीने के लिये तैयार नहीं होगा और पी भी जाए, तो उसे किसी प्रकार का संतोष, बल और समाधान नहीं मिलेगा । बल्कि रोग का भोग बन बीमार हो जाएगा, नानाविध व्याधियों का शिकार हो जाएगा ।
यही दशा ज्ञानामृत से छलछलाते प्रात्मभाजन में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा के मिल जाने से होती है। परिणाम यह होता है कि
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