Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
संयतंगे चतुव्विशति भुजाकारंगळवु । २४ । प्रमत्तसंयतंगे अष्टाविंशति भुजाकारंगळवु २८ ॥ अप्रमत्तं द्वयभुजाकारंगळप्पुवु । २ अपूर्वकरणगय द्विकभुजाकारंगळवु । २ । स्थूलनोळनिवृत्तिकरणनो पंचकादिप्रकृतिस्थानंगळोळ त्रिकत्रिकभुजाकारंगळप्पुव ३|३|३|३|३| संदृष्टि अल्पतर अल्पतर अनिवृत्ति
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अप्पदरा पुण तीसं णभ णभ छ द्दोणि णभ एक्कं ।
धूले पणगादीणं एक्केक्कं अंतिमे सुपणं ॥४७३ ॥
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अल्पतराः पुनस्त्रशन्नभो नभः षड् द्वौ द्वौ नभ एकः । स्थूले पंचकादीनामेकैकोंऽतिमे शून्यं ॥ पुनः मत्तल्पतरंगळु मिथ्यादृष्टियोळु ३० । सासादननो नभमेयक्कुं शून्यमे बुदथं । मा सासादनं भुजाकारबंध संभविसुगुमल्लदल्पतरबंधं संभविसदेक दोर्ड पतनशीलन पुर्दारवं । मिथ्यादृष्टिगुणस्थान मनल्लदन्यगुणस्थानमं नियर्मादिदं पोद्दिनपुर्दारदं । मिश्रगेयुमल्पतरबंध विशेषं १० शून्यमेयक्कुमेकें दोडा मिश्रनुमेले असंयतगुणस्थानमल्लदन्यगुणस्थानांतरमं पोनप्रदं सम
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देशसंयते चतुर्विंशतिः । प्रमत्तेऽष्टाविंशतिः । अप्रमत्ते द्वौ । अपूर्वकरणेऽपि द्वौ । स्थूले अनिवृत्तिकरणे पंचकादिषु त्रयस्त्रयो भूत्वा पंचदश मिलित्वा तावंतः ॥४७२ ॥
पुनः अल्पतरा मिथ्यादृष्टो षोढाद्वाविंशतिकस्य मिश्रा संयत योद्विषा सप्तदशकेन द्वादश, देशसंयतद्विषात्रयोदशकेन द्वादश, अप्रमत्तकधानवकेन षडिति त्रिंशत् । तस्यैकविंशतिकेन द्विधानवकेन च बंधः 'सासणपमत्त
१५ मिश्र में बारह, असंयत में बीस, देशसंयत में चौबीस, प्रमत्तमें अठाईस, अप्रमत्त में दो, अपूर्वकरण में दो, अनिवृत्तिकरणमें पांच आदिके बन्ध में तीन-तीन भुजकार होने से मिलकर पन्द्रह | इस तरह एक सौ सत्ताईस भुजाकार हुए ||४७२ ॥
अब अल्पतर बन्ध कहते हैं - मिध्यादृष्टि में बाईसका बन्ध, उसके छह प्रकार । वहाँ से मिश्र या असंयत में जानेपर सतरहका बन्ध दो प्रकार । सो एक-एक प्रकार में छह २० प्रकारके बाईसके बन्धकी अपेक्षा बारह अल्पतर होते हैं। यदि देशसंयतमें गया तो वहां तेरहका बन्ध दो प्रकार | अतः बारह अल्पतर होते हैं । यदि अप्रमत्तमें गया तो वहाँ नौका बन्ध एक प्रकार । अतः छह अल्पतर सब तीस हुए ।
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