Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गयजोगस्स दु तेरे तदियाउगगोद इदि विहीणेसु ।
दस णामस्स य सत्ता णव चेव य तित्थहीणेसु ॥६११॥ गतयोगस्यतु त्रयोदशसु तृतीयायुग्र्गोत्रमिति विहीनेषु । दशनाम्नः सत्वानि नव चैव च तीर्थहीनेषु ॥
तु मत्ते गतयोगकेवलिय सत्वप्रकृतिगळ, "उदयगतबारणराणू" एंब त्रयोदशप्रकृतिगोळ ५ तृतीयवेदनीयमो दुं आयुः मनुष्यायुष्यमुं गोत्र उच्चैर्गोत्रमुमितु मूरुं प्रकृतिगळ होनमागुत्तं विरलु शेषदशप्रकृतिगळ स्थानमयोगिकेवलियोळक्कुमल्लि तीर्थरहितमादोडे नवप्रकृतिस्थानमक्क । अनंतरमुद्वेल्लितस्थानविशेषमं पेन्दपरु :
गुणसंजादं पयडि मिच्छे बंधुदयगंधहीणम्मि ।
सेसुव्वेन्लणपयडि णियमेणुव्वेल्लदे जीवो ॥६१२॥ गुणसंजाता प्रकृतिम्मिथ्यादृष्टौ बंधोदयगंधहीने । शेषोद्वेल्लनप्रकृतिन्नियमेनोवेल्लयति
जीवः॥
मिथ्यादृष्टियोलु सव्वकालमुद्वेल्लनप्रकृतिगळ बंधोदयगंधमुमिल्लप्पुरिदमा गुणसंजाता. हारसम्यक्त्वप्रकृतिसम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियुमं शेषोद्वेल्लनप्रकृतिगळमं मिथ्यादृष्टिजीवनुद्वेल्लनमं माडि किडिसुगुं नियमदिद। अनंतरमुल्लनप्रशस्तप्रकृति मोदल्गोंडु क्रमदिवमुद्वेल्लनमं माळकुमेंदु पेळ्दपरु :
सत्थत्तादाहारं पुव्वं उव्वेल्लदे तदो सम्म ।
सम्मामिच्छं तु तदो एगो विगलो य सयलो य ॥६१३॥ प्रशस्तत्वादाहारं पूर्वमुद्वेल्लयति ततः सम्यक्त्वं । सम्यरिमथ्यात्वं तु तत एको विकलश्च सकलश्च।
तु-पुनः अयोगिवलिसत्त्वप्रकृतयः 'उदयगवारणराण' इति त्रयोदशसु वेदनीयमनुष्यायुरुच्चैर्गोष्वपनोते दश स्युः । तत्र तीर्थे अनीते नव स्युः ॥६११॥ अथोद्वेल्लितस्थानविशेषमाह
मिथ्यादृष्टो सर्वदापि बन्धोदयगन्धो नेति सम्यग्दर्शनादिगुणसंजातसम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वाहारकद्वय. प्रकृतीः शेषोद्वेलनप्रकृतीश्च नियमेन मिथ्यादृष्टिरेवोद्वेल्लयति ॥६१२॥ तत्क्रममाह
अयोग केवलीकी सत्त्व प्रकृतियाँ 'उदयगवारणराण' इत्यादि गाथाके द्वारा तेरह कही २५ हैं। उनमें से वेदनीय, मनुष्यायु और उच्चगोत्र घटानेपर दस प्रकृतिका सत्त्वस्थान होता है। तथा उन दसमें से तीथंकर घटानेपर नौ प्रकृतिरूप सत्त्व स्थान होता है ।।६११॥
आगे उद्वेलना स्थानोंका विशेष कहते हैं
मिथ्यादृष्टि में जिनके बन्ध और उदयकी गन्ध भी सर्वदा नहीं होती और जो सम्यक्दर्शन आदि गुणों के कारण उत्पन्न होती हैं ऐसी सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, ३० आहारद्विक प्रकृतियोंकी तथा शेष उद्वेलन प्रकृतियोंकी उद्वेलना नियमसे मिथ्यादृष्टि ही करता है ॥६१२॥
उनका क्रम कहते हैं
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