Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
११७७ भंगमा देयककुं । शेषद्विसंयोगगुणकारभंगंगळ पुनरुक्तंगळ । मत्तं द्विसंयोग क्षेपंगळ मिश्रभावाष्टस्थानदोडन पारिणामिकभावस्थानद्वयवोळे रडप्पुवु । द्वि गु १ । क्षे २ । त्रिसंयोगगुणकार भंगमेरडे. यक्कुं । त्रि गु २। कूडि चक्षुरून मिथ्यादृष्टियगुण्य पूर्वोक्तद्वादशभंगगळ्गे गुणकारभंगंगळमूळं क्षेपंगळमूरप्पुवु । गुण्य भंग १२ । गु ३। क्षे ३। लब्धभंगंगळ ३९ । उभयमिथ्यादृष्टिय सर्व भंगंगळ सासिरदेंदु नूरे भत्तमूरप्पुवु । १८८३ ।। सासादनंगे | मि | औ| पा | इल्लि प्र गु १।१
| मि1ो ।पा। अत्र मिश्राष्टस्वेव प्रत्येकभंगो ग्राह्यः। शेषाणां पुनरुतस्वात् । स च क्षेपः।
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द्विसंयोगेऽपि तथात्वाद् गुण कारः एकः । मिश्राष्टकस्य भव्यत्वाभव्यत्वाम्यां द्वो क्षेपौ । त्रिसंयोगे गुणकारावेव द्वौ। मिलित्वा प्रागुक्तद्वादशानां गुणकारास्त्रयः । क्षेपास्त्रयः । भंगा एकान्नचत्वारिंशत् । उभये मिलित्वा मिथ्यादृष्टौ सर्वभंगा ज्यशोत्यग्राष्टादशशतानि ।
आठ रूप स्थान और पारिणामिकके दो स्थान ये चार स्थान हैं। यहाँ प्रत्येक भंग चार हैं। १. उनमें से एक मिश्रका आठ स्थान रूप प्रत्येक भंग ग्रहण करना, क्योंकि अन्य तीन प्रत्येक भंग पुनरुक्त हैं-चक्षुदर्शन सहित मिथ्यादृष्टि में कहे पूर्व भंगोंके समान है। अतः एकका ही ग्रहण किया। सो क्षेप रूप है। दो संयोगीमें मिश्रका आठका स्थान और औदयिकका आठका स्थान इन दोनोंके संयोग रूप एक भंग गुणकार है। यहाँ औदयिकके स्थान और भव्य-अभव्य रूप पारिणामिकके दो स्थानोंके संयोगसे जो दो-दो संयोगी भंग होते हैं वे १५ पुनरुक्त हैं अतः उनका ग्रहण नहीं किया। मिश्रका आठका स्थान और भव्य-अभव्य रूप पारिणामिकके संयोगसे जो दो-दो संयोगी भंग होते हैं वे क्षेपरूप हैं। त्रिसंयोगीमें मिश्रका आठका स्थान, औदायिकका आठका स्थान, और पारिणामिकके भव्य-अभव्यरूप दो स्थानोंके संयोगसे जो दो भंग होते हैं वे गुणकार रूप हैं। इस तरह चक्षु दर्शन रहित मिथ्यादृष्टीके जो पहले बारह गुण्य कहा था उसका तीन गुणकार और तीन क्षेप हुए। २० गुण्यको गुणकारसे गुणा करके क्षेप मिलानेसे उनतालीस भंग हुए । इस प्रकार चक्षु दर्शन सहित और रहित मिथ्यादृष्टिके सब भंग मिलकर अठारह सौ तिरासी होते हैं।
विशेषार्थ-प्रत्येक गुणस्थानमें जितने भावोंके स्थान पाये जाते है उतने तो प्रत्येक भंग जानना। औदयिकके स्थान गुणकार जानना। अन्य भावोंके स्थान क्षेपरूप जानना। दो तीन आदि भावोंके संयोगसे होनेवाले भावोंको दो संयोगी त्रिसंयोगी जानना। उनमें भी २५ औदयिक भाव और अन्य किसी भावके संयोगसे जो दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें गुणकार रूप जानना। औदायिक भाव बिना अन्य भावोंके संयोगसे जो दो संयोगी आदि भंग हों उन्हें भेपरूप जानना । पहले कहे भंगोंके समान जो पीछे भंग हों उन्हें पुनरुक जानकर उनको ग्रहण नहीं करना। ऐसा करनेपर जो गुणकार हों उन्हें जोड़कर पूर्व में कहे गुण्यसे उनका गुणा करके जो प्रमाण हो उसमें क्षेपको मिलाकर जितना प्रमाण हो उतने ३० भंग जानना।
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