Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 762
________________ १३९० गोकर्मका मानेन्न मतिय पणिगेर्नु किरिदिल्लदरिद जैनागममं । शानं मत्यनुसारं ज्ञानिगळेनगेवळिवरें बंगंगं ॥३॥ अरिवनगादोर्ड तिण्णं बरिबिट्टियोळेके धनमनीवननुति । प्परिविन कणि बोडपं गुरुवरे किरिकिरिदनरिव केशणंगळु ॥४॥ सेसेगोळल्वेळवं कोललोसुगलेन्मं दुरात्मनो केशण्णं ।। दोसियनुतिंतु तोरवं पेसि जिनागममनरिवनं गोपण्णं ॥५॥ श्रीमल्लिः सुव्रतः स्वामी नमिर्नेमिः श्रीपावकः । वीरस्त्रिकालजोऽप्यन् सिद्धः साधुः शिवं क्रियात् ॥३॥ यत्र रत्नस्त्रिभिल वाहन्त्यं पूज्यं नरामरैः । निर्वान्ति मूलसंघोऽयं नन्द्यादाचन्द्रतारकम् ॥४॥ तत्र श्रीशारदागच्छे बलात्कारमणोऽन्वयः । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥५॥ विशेषार्थ-केशववर्णीके समकालीन पण्डितवर्ग एवं विद्वानोंके लिए यह सवाल है और चुनौती है। इससे उसके आत्मविश्वासका अंश प्रकट होता है और वह कहता है कि मेरा पाण्डित्य प्रश्नातीत है ॥२॥ वह कहता है कि मैंने अपनी बुद्धिके अनुसार अगाध जैनागमका अध्ययन किया है। ज्ञान तो हमेशा सतताध्ययनसे और संस्कारसे प्राप्त होता है। क्या बिना संस्कारके लोग १५ मेरी बराबरी कर सकते हैं ? ॥३॥ विशेषार्थ-केशववर्णी अपनी अध्ययनप्रवृत्ति और संस्कार विशेष पर अभिमानसे कहता है कि मेरी विद्वत्ता किसीसे कम नहीं है ॥३॥ ज्ञान तो सदा मुफ़्त में नहीं मिलता। मेरी निश्चित धारणा है कि मैंने धन देकर ही ज्ञान प्राप्त किया है। ऐसोंका ज्ञान पाण्डित्य पूर्ण है ॥४॥ २० विशेषार्थ-ऊपरकी पंक्तियोंसे यह स्पष्ट विदित होता है कि केशववर्णीके समकालीन कोई विद्वान उसकी विद्वत्ताको वक्रदृष्टि से देखनेवाला था। वह व्यक्ति आगेके पद्य (नं. ५) में सूचित गोपण्ण ही शायद हो। लेकिन अपनी गोम्मटसारको टीकाके अन्तिम भागमें इस अंशका उल्लेख करनेका औचित्य क्या था यह एक कुतूहलको बात मनमें रह जाती है । शायद उसका आशय यह रहा होगा कि वह अपने प्रतिस्पर्धियोंकी सत्त्वपरीक्षामें खरा २५ उतरा है और अगाध पाण्डित्यवाला है ॥४॥ ___ दुरात्मा गोपगने मुझे मारनेके लिये मन्त्रात स्वीकारने के लिये कहा । आखिर वही दोषी ठहराया जाकर जिनागमको त्यागकर केशवण्णको (मुझे) छोड़कर चला गया। उसकी हार हुई ॥५॥ विशेषार्थ-ऊपरके पद्यसे यह वार्ता स्पष्ट हो जाती है कि गोपण्ण नामका समकालीन व्यक्ति था जिसका सम्बन्ध केशवण्गके साथ मधुर नहीं था। साथ ही जैनागमके ज्ञाता गोपण्ण जैसे व्यक्तिने अपने ऊपर जो झूठा अपवाद लगाया है उसकी चोटका दुःख भी केशवण्णको था। लेकिन स्पष्ट था कि वह अपवाद बेबुनियाद था ।।५।। ३० सुपार्श्वमनघं चन्द्रप्रभ त्रिभुवनाधिपम् । पुष्पदन्तं जगत्सारं वन्दे तद्गुणसिद्धये ॥३॥ शीतलं सुखसाद्भूतं पुण्यमूर्ति नमाम्यहम् । श्रेयान्सं वासुपूज्यं च केवलज्ञानसिद्धये ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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