Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 763
________________ कर्णाटवृत्ति वीवतत्त्वप्रदीपिका [ मत्तेभविक्रीडित वृत्त:] पोगो धूर्तजनोपसर्गमनिशं बबत्ते बेबोळवानोणः गोम्मटसार वृत्तियनिदं कर्नाटवाक्यंगळि । प्रणुतझैधनरुं बहुश्रुतरिदं तिद्दिबुधर्द्धर्मभूषणभट्टारकदेवराज्ञेयनिदं संपूर्णमं माडिदें ॥६॥ नेरेदु शकादमिदुवसुनेत्रशशिप्रमितं(१२८१)गळागि सं.। विरुतिरयु विकारिवरवत्सरचैत्रविशुद्ध पक्ष भा. सुरतरपंचमीदिवसदंदिदु गोम्मटसारवृत्ति भास्करनोगे दं विनेयजनहृत्सरसिजमतुकळलच्चुतं ॥७॥ यो गणगणभद्गीतो भट्रार कशिरोमणिः। भक्त्या नमामि तं भूयो गुरुं श्रीज्ञानभूषणम् ॥६॥ कर्णाटप्रायदेशेशपल्लिभूपालभक्तितः । सिद्धान्तः पाठितो येन मुनि वन्द्रं नमामि तम् ॥७॥ __ यद्यपि धूत जनोंने सदा उपद्रव मचाया फिर भी बिना डरे मैंने उसका सामना किया और धर्मभूषण भट्टारक देवकी आज्ञा पाकर गोम्मटसारकी कन्नड भाषामें टोका रची। इसमें यदि कोई त्रुटि रह जाय तो श्रुतपारंगत विद्वान् पण्डितगण उसको ठीक बनानेका अनुग्रह कर ॥६॥ विशेषार्थ-कृति निर्माण कालमें केशवण्णने स्वयं जिन समस्याओंका सामना किया था, यहाँ उसका उल्लेख किया है। वह कहता है कि मैंने अपवादोंको जीत लिया और इस कृति रचनामें मुझे मेरे गुरु धर्मभूषण भट्टारककी कृपाका अनुग्रह प्राप्त हुआ है। इन सब बातोंसे सष्ट है कि केशवण्णको कृतिरचनामें अनेकों कष्ट सहने पड़े, फिर भी गुरुके अनुग्रहसे उनने ग्रन्थको सम्पूर्ण किया । यहाँ केशवणकी बातोंमें विनयपूर्ण आत्मविश्वास- २० की झलक दीख पड़ती है ॥६॥ यह पद्यकृति रचनाकारकी न होकर प्रतिलिपिकारकी जान पड़ती है। प्रसिद्ध शालिवाहन शक वर्ष इन्दु-वसु-नेत्र-शशि ( १८२१ उलटा करें तो १२८१ में ) के विकारि संवत्तरके चैत्र शुदी पंचमीके शुभ दिनमें इस गोम्मटसारकी कर्नाटक वृत्तिको शिष्यों के हृदयको प्रफुल्लित क नेवाले श्रीभास्करने सम्पूर्ण किया ॥७॥ २५ विशेषार्थ-इस गोम्मटसार वृत्तिकी प्रतिलिपि शालिवाहन शक संवत् १२८१ के विकारि संवत्सरके चैत्र शुक्ल पंचमीके पवित्र दिन भास्करने लिखकर पूर्ण किया ॥७॥ विमल निजितानङ्गं प्राप्तानन्तचतुष्टयम् । अनन्तं धर्मनाथं च वन्दे स्वात्मोपलब्धये ॥५॥ शान्तिनाथं व कुन्थु च अरं वेशान्नमाम्यहम् । पथारूवातगुणोपेतान् यथारूपातप्रसिद्धये ॥६॥ मिनाथं च पर्व च वर्धमानं जिनेश्वरम् । त्रिकालमभिवन्देऽहं नवक्षायिकलब्धये ॥७॥ विशालगोचगः मर्वेजन्ताह सद्धसाघवः । निःश्रेयसपदं दाः शरण तममङ्गलम् ॥८॥ य माध्यैव भगोकाः प्राप्ताः केल्यसम्पदः । शाश्वतं पदरापुस्तं मू संघम गश्रये । ९॥ तत्र श्रीशारदागच्छे बलात्कारगणोऽन्वयः । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्द्यादाचक्रतारकम् ॥१०॥ क-१७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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