Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 790
________________ १४१८ गो० कर्मकाण्डे अविभागी प्रतिच्छेद है । उनके समूह द्वारा युक्त जो एक परमाणु होता है उसे वर्ग कहते हैं । समान अविभाग प्रतिच्छेदों युक्त जो वर्ग हैं उनके समूहका नाम दर्गगा है। यहां स्तोक अनुभाग युक्त परमाणुका नाम जघन्य वर्ग है | उनके समूहका नाम जघन्य वर्गणा है । जघन्य वर्गसे एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद युक्त जो वर्ग उनके समूहका नाम द्वितीय वर्गणा है । इस क्रमसे एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक वर्गों की समूह रूप वर्गणा जहाँ तक होती है वहाँ तक उन वर्गणाओंके समूहका नाम जघन्य स्पर्धक होता है । जघन्य वर्ग द्विगुणित अविभागी प्रतिच्छेद युक्त वर्गोंके समूहरूप द्वितीय स्पर्धक को प्रथम वर्गणा होती है । उसके ऊपर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक क्रम लिये जो वर्ग हैं उनके समूह रूप वर्गणा जहाँ तक होती हैं वहाँ तक उन वर्गणाओं का समूह रूप द्वितीय स्पर्धक होता है । इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ आदि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके वर्ग में जघन्य स्पर्धकसे तिगुणे, चौगुणे आदि अत्रिभागी प्रतिच्छेद होते हैं । यहाँ सर्व परमाणुओं का प्रमाण उपरिलिखित एक-एक अधिक क्रममें होता है । ऐसा विधान जब तक सम्पूर्ण परमाणु पूर्ण न हो जायें तबतक चलता है। इस क्रमसे गुणहानिशलाकाएँ, स्पर्धकशलाकाएँ, वर्गणा शलाकाएँ तथा वर्गों की शलाकाओं की संख्या प्राप्त की जा सकती है । faraण में स्पर्धकोंकी रचना इस प्रकार होती है कि प्रथमादि स्पर्धक पहलेवाले, निचले स्पर्धक कहलाते हैं । पिछले स्पर्धकों को ऊपरले स्पर्धक कहते हैं । प्रथमादि स्पर्धकोंमें क्रमसे परमाणुओंका प्रमाण घटता-घटता है अनुभाग बढ़ता बढ़ता है । वहाँ प्रथमादि सर्वस्पर्धकोंके चार विभाग करते हैं । घातियोंके चार भाग लता, दारु, अस्थि और शैलके समान शक्ति रखते हैं । अप्रशस्त अघातियोंके निंब, कांजीर, विष, हलाहल शक्तिवाले होते हैं । प्रशस्त अघातियोंके गुड़, खंड, शर्करा और अमृत समान शक्तिवाले होते हैं । घातियोंमें लता भाग और कुछ दारु भागके स्पर्धक देशघाती हैं । अवशेष सर्वघाती हैं । स्थिति के पहले निषेक पहले उदय आते हैं, पिछले बादमें उदयमें आते हैं । उसी प्रकार अनुभाग के पहले स्पर्धक पहले उदय आनेका, या पिछले स्पर्धक पीछे उदय आनेका नियम नहीं है । अनेक समयोंमें बँधे हुए कर्मोका विवक्षित कालादिमें जीवमें अस्तित्व होना सच्व है । यह चार प्रकारका है : प्रकृतिसत्त्व, प्रदेशसत्त्व, स्थितिसत्त्व और अनुभागसत्त्व । यहाँ अनेक समयों में बँधी ज्ञानावरणादिक मूल प्रकृति वा उनकी उत्तर प्रकृतियों का जो अस्तित्व उसे प्रकृतिसश्व कहते हैं । उन प्रकृति रूप परिणमें तथा अनेक समयोंमें बँधे, ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुओंका अस्तित्व प्रदेशसव कहलाता है । प्रत्येक समयमें एक-एक समयप्रबद्ध ग्रहण किये गये परमाणुओंके एक-एक निषेक क्रमसे निर्जरित होते हैं । यदि समयप्रबद्ध के सर्व निषेक गल जायें तो उनका अस्तित्व समाप्त हो जाये । यहाँ त्रिकोण यन्त्र रचना में किसी समयप्रबद्ध के अन्य निषेक गलनेपर एक निषेक अवशेष रहता है, किसी अन्यके अन्य निषेक गलनेपर दो निषेक अवशेष रहते हैं । इस क्रमसे जिस समयप्रबद्धका एक निषेक गला हो तो उसके बिना सर्व निषेक अवशेष रहते हैं । जिसका कोई भी निषेक नहीं गला हो उसके सर्व ही निषेक अवशेष रहते हैं । ऐसे सभी अवशेष रहे निषेकोंका कुछ प्रमाण सत्त्व है जिसका प्रमाण किंचित् ऊन ड्योढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सिद्ध होता है । (देखिए, गोम्मटसार जौवकाण्ड) | यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उपर्युक्त विवक्षा एक प्रकृति सम्बन्धी है । ऐसे ही सर्व प्रकृतियों सम्बन्धी समयप्रबद्धों का वर्णन होगा । पुनः उन अनेक समयोंमें बंधी प्रकृतियोंकी स्थितिका नाम स्थिति सच्च । उन प्रकृतियोंका जिस समयबद्धका एक निषेकं अवशेष रहा उसकी एक समयकी स्थिति है। जिसका दो निषेक अवशेष रहा उसके प्रथम निषेककी एक समय और द्वितीय निषेककी दो समय स्थिति है । इस क्रमसे जिसका एक भी निषेक नहीं गला है उसकी प्रथमादि निषेकोंकी एक, दो आदि समयोंसे अधिक आबाधाकाल मात्र स्थितिके क्रमसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828