Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 785
________________ गणितात्मक प्रणाली १४१३ कर्मके मुख्य भेद दो है-द्रव्यकर्म और भावकर्म । ज्ञानावरण आदि पुदगल द्रव्यका पिण्ड द्रव्यकर्म है। और उसमें जो शक्ति है वह भावकर्म है, अथवा कार्यमें कारणका उपचार करके उस शक्तिके निमित्तसे आत्मामें उत्पन्न मिथ्यात्व राग, द्वेष आदि भाष भावकर्म हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्ममें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे द्रव्यकमसे भावकर्म और भावकर्ममे द्रव्यकर्मकी परम्परा अनादि है। शुभ और अशुभ कर्मोके आनेके द्वार रूप आस्रव हैं। आत्मा और कर्म प्रदेशोंका परस्परमें एक क्षेत्रवगाह बन्ध है। आस्रवका रोकना संवर है। कर्मोंका एक देश पृथक् होना निर्जरा है। सर्व कर्मोका आत्मासे अलग हो जाना मोक्ष है। संज्ञाके अनुसार गुण रहित वस्तु में व्यवहार हेतु स्वेच्छा की गयी संज्ञाको नाम कहते हैं । काष्ठ कर्म, पुस्तककर्म, चित्रकर्म और अक्ष विक्षेप आदिमें "यह वह है", इस प्रकार स्थापित करनेको स्थापना कहते हैं । जो गुणोंके द्वारा प्राप्त हुआ था, या गुणोंको प्राप्त हुआ था अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्त किया जायेगा या गुणोंको प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं। वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको माव कहते हैं। प्रमाण और नयोंसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। किसी वस्तुके स्वरूपका कथन करना निर्देश है। स्वामित्वका अर्थ आधिपत्य है । जिस निमित्तसे वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है। आधारको अधिकरण कहते हैं। जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है। विधानका अर्थ प्रकार या भेद है। इनसे पदार्थोंका ज्ञान होता है। सत् अस्तित्वका सूचक है। संख्यासे भेदोंकी गणना होती है। वर्तमान काल विषयक निवासको क्षेत्र कहते हैं। त्रिकाल विषयक निवासको स्पर्शन कहते हैं। मख्य और व्यावहारिक प्रकारसे दो काल होते हैं। विरह कालको अन्तर कहते हैं। मावसे औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक एवं पारिणामिक भावोंका भी अर्थ ग्रहण होता है। एक दूसरेकी अपेक्षा न्यनाधिकका ज्ञान अल्पबहुरव कहलाता है । इनके द्वारा भी पदार्थोंका ज्ञान होता है।। इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मनन मात्र मति-ज्ञान है । श्रत ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुननामात्र श्रुत ज्ञान है। अधिकतर नीचेके विषयको जाननेवाला होनेसे या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि ज्ञान नाम सार्थक है। दूसरेके मनोगत अर्थमें परिगमन करनेवाला ज्ञान मनःपर्यय है। अर्थी जन जिस असहाय ज्ञानके लिए बाद्य एवं आभ्यन्तर तप द्वारा मार्गका केवल या सेवन करते हैं वह केवलज्ञान है। विषय और विषयीके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रहमति कहते हैं। अवग्रह द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषके जाननेकी इच्छा ईहामति है। विशेषके निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है वह अवाय मति है। जानी हुई वस्तुका जिस कारण कालान्तरमें विस्मरण नहीं होता वह धारणा मति है। चक्षु आदि इन्द्रियोंके विषयको अर्थ कहते हैं । ये चारों मति ज्ञान अर्थके होते हैं । अव्यक्त शब्द-समूह व्यंजन है, जो केवल अवग्रहमति रूप है। चक्षु और मनसे व्यंजन अवग्रह नहीं होता है । केवलज्ञानकी प्रवृत्ति सब द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायोंमें होती है। आत्मामें कर्मकी निज शक्तिका कारणवशसे प्रकट न होना उपशम है। कर्मों का आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । उभय भाव रूप मिश्र है। द्रव्यादि निमित्त के वशसे कर्मोका फल प्राप्त होना उदय है। जिसके होनेमें द्रव्यका स्वरूपलाभमात्र कारण है वह परिणाम है। ये भाव जीवके हैं, जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके निमित्तोंसे होता है। और चैतन्यका अन्वयी परिणाम उपयोग कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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