Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 712
________________ १३४० गो० कर्मकाण्डे तत्कालचरमसमयपयंतं नाल्कावश्यकंगलप्पुववाउवें दो प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धि वृद्धि सातादि. प्रशस्तप्रकृतिगल्गे प्रतिसमयमनंतगुणवृद्धया चतुःस्थानानुभागबंध असाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळगे प्रतिसमयमनंतगुणहान्यादिस्थानानुभागबंध बंधापसरणमुमेंब नाल्कावश्यकंगळोळ बंधापसरणा वश्यकदोलु बंधापसरणमें बुदेंते दोडे ज्ञानावरणादिप्रकृतिगमग स्वयोग्यस्थितियंतः कोटीकोटि५ प्रमितमक्कुमा स्थितियुं प्रथमसमयं मोदल्गोंदु तद्योग्यांतम्मुहूतकालपय॑तं समस्थितिबंधमं माडि तदनंतरसमयदोळु पल्यसंख्यातेकभागमात्रस्थितियं कुंदिसि कट्टि तावन्मात्रसमस्थितिबंधमनंतम्र्मुहूर्त्तकालपर्यतं मान्कु । मितु बंधापसरण कालांतर्मुहूर्त्तक्कोशेदु स्थितिविकळपमागलध:प्रवृत्तकरणकालमंतर्मुहूर्तमादोडमदं नोडलु संख्यातगुणमक्कुमदक्केनितु स्थितिबंधविकल्पंगळप्पु. वेंदु त्रैराशिकम माडि प्र।२।। इ। का। २।१११ बंधापसरण फ। शला।१ अधःप्र= काल १० बंद लब्धं संख्यातस्थितिबंधविकल्पंगळप्पु ॥१॥ इंतपूर्वकरणनोळमो नाल्कावश्यकंगळुसहितमागि मत्तं स्थितिकांडकघात, मनुभागकांउकघातगुणश्रेणि, गुणसंक्रममेंब नाल्कावश्यकंगळु सहितमागि अष्टावश्यकंगळप्पुवदु कारणदिदमित. निवृत्तिकरणनोळ सूक्ष्मसांपरायनोलं बंधापसरणंगलिदं संभविसुव सांतरस्थितिविकल्पस्थानंगल उत्कृष्टदिदमंतःकोटोकोटि । अंतःकोटि =२ ५। जघन्यादिद "भपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य । १५ नामगोत्रयोर टी। शेषाणामंतम्मुहूर्तः" यदितुत्कृष्टं मोदळ्गोंडु स्वस्वजघन्यपर्यत स्थितिविकल्प __ अधःप्रवृत्त करणे प्रयमसमयादन्तर्मुहूर्त ज्ञानावरणादीनां स्वयोग्यांतःकोटाकोटिस्थिति बध्नाति । तद ग्रंतमहतं पल्यासंख्याताभागांनां पुनस्तदऽतर्महर्त तावतोनामिति संख्यातसहस्रवारं नीत्वा तं करणं ममाप्यापूर्वानिवृत्तिकरणम्-मसाम्परायेऽप्या स्व-स्वाधं तदालापबारमासृत्य वेदनीयस्य द्वादशमुहूति नामगोत्रयोगटान्त महूति शेषाणामन्तहूतिं च बध्नातीति तानि तावन्त्युक्तानि । शेपद्वादशजीवसमासानां एयं अधःप्रवृत्तकरणमें पहले समयसे अन्तमुहूर्त पर्यन्त ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंकी अपने योग्य अन्तःकोटी-कोटि सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके पश्चात् अन्तमुहूर्त पर्यन्त पल्यके असंख्यातवें भाग हीन स्थितिको बाँधता है। उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उससे भी उतनी ही हीन स्थितिको बाँधता है। इस प्रकार संख्यात हजार बार करके उस करणको पूरा करता है। उसके पश्चात् अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्परायमें भी २५ अपने-अपने स्थितिबन्धको उतनी-उतनी ही बार घटाकर वेदनीयकी बारह मुहूर्तपयन्त, नाम २० प्र २१ फ श १ इ का २१११ बन्धापसरण अधःप्र काल भवन्ति ११। अपूर्व करणे तानि आवश्यकानि च स्थिति काण्डकघातानुभागकाण्डकघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमणानि चेत्यष्टो रांतीति कारणात् । अनिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसाम्परायेऽप्यन्तःकोटाकोटितः वेदनीयस्य द्वादशमहर्तवर्यतं नामगोत्रयोरटान्तमहत्तंपर्यंत शेपाणामन्तमहर्तपर्यतं च बन्धापसरणानि स्थरिति संख्यातसहस्राणीत्युक्त। पाठोऽयं श्रीमदभयचन्द्रनामांकितायां टीकायां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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