Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 753
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका मेले शेषस्थितिगळ खंडंगळु स्वस्वजघन्यखंडमोदल्गोंड स्वस्वोत्कृष्टखंडपर्यंतमनुकृष्टिखंडगरिळयंगूपदिदमसंख्यातगुणितक्रमंगळायुष्यकर्मवोळप्पुवु। संदृष्टि : २२॥४-१ १ २२।४।४।४।४।४ २२॥४॥४-१ २२।४।४।४।-१ १ २२।४।४।४।४।४।४ १२२।४।४।४।४।४।४।४१ २२।४।४।४।४ २२।४।४।४ १२२।४।४।४।४ २०६१ २२।४।४-१ १२२॥४॥४॥४॥४४ १२२।४।४।४।४।४।४ १] २२।४।-१ २२।४।४। १ २२।४।४।४ १२२।४।४।४।४। १।२२।४।४।४।४।४ श यितायुष्योत्कृष्टस्थिति अनुकृष्टिखंडंगळ्पय्यंतं स्वस्वजघन्यखंडम मोदल्गोंडु स्वस्वोत्कृष्टखंडपय्यंतं तिर्यग्रूपदिवमसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुर्व दरियल्पडुवुवु । अनंतरमनुभागबंधाध्यवसायंगळं जघन्यस्थितिप्रतिबद्धस्थितिबंधाध्यवसायंगळोलु सर्व- ५ जघन्यस्थितिपरिणामस्थानक्के पेळ्दपरु : रसबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखलोगमेत्ताणि । अवरट्ठिदिस्स अवरट्ठिदिपरिणामम्मि थोवाणि ।।९६३।। रसबंधाध्यवसायस्थानानि असंख्यलोकमात्राणि । अवरस्थितेरवरस्थितिपरिणामे स्तोकानि ॥ रसबंधाध्यवसायस्थानविकल्पंगळुमसंख्यातलोकमात्रंगळाळापसामान्यदिदप्पुवु । Eat al. जघन्यस्थितिबंधप्रायोग्यकषायपरिणामंगळमसंख्यातलोकमानंगळपूर्वोक्तंगळिनितप्पु । ९। विवरोळु तथा शेषस्थितीनां स्वस्व जघन्यखण्डात् स्वस्वोत्कृष्टखण्डपर्यंतानि च सर्वाणि तिर्यगसंख्यातगुणितक्रमाणि भवन्ति ॥९६१-९.२॥ अथानुभागबन्धाध्यवसायान् जघन्यस्थितिप्रतिबद्धाध्यवसायेषु सर्वजघन्यस्याह रसबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातलोकमात्राणि = aaa तत्र जघन्यस्थितिबन्धप्रायोग्यपरिणामेषु १५ जघन्य स्थितिके अन्तिम खण्ड पर्यन्त तो चय अधिक हैं। उससे आगे उत्कृष्ट खण्डसे ऊपरकी स्थितिके खण्ड अपने-अपने उत्कृष्ट खण्ड पर्यन्त तथा शेष स्थितियोंके अपने-अपने जघन्य खण्डसे अपने-अपने उत्कृष्ट खण्ड पर्यन्त सब तिर्यक् रचनारूप असंख्यात गुणेअसंख्यात गुणे हैं ॥९६१-९६२।। आगे अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानोंका कथन करते हुए जघन्य स्थितिसम्बन्धी २० अध्यवसायोंमें सबसे जघन्य सम्बन्धी अनुभागाध्यवसाय स्थानोंको कहते हैं--- ____ अनुभागाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। अर्थात् असंख्यात लोकसे गणित असंख्यात लोकमात्र हैं। उनमें जघन्य स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थानमें जघन्य स्थितिबन्धयोग्य अध्यवसायोंके प्रमाणसे असंख्यातलोक गणे अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान हैं फिर भी वे अन्य स्थितिबन्धाध्यवसाय सम्बन्धी अनुभागाध्यवसायोंसे थोड़े हैं। वही २५ कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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