Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 749
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरमुक्त प्रथमगुणहानियोळनुकृष्टि खंडंगळोळल्पबहुत्वमं सूचिसिवपं पढमं पढमं खंड अण्णोष्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । -- हेट्ठिल्लुक्कस्सा दोणंतगुणादुवरिमजहणं ॥ ९५६ ॥ । प्रथमं प्रथमं खंडं अन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशं । अधस्तनोत्कृष्टावनंत गुणस्तूप रितनजघन्यं ॥ १३७७ अंतु रचिसिलपट्ट प्रथमादिगुणहानिगळोळनुकृष्टि प्रथमं प्रथमं खंडं स्वोत्कृष्टपथ्यतं ५ गुणहा निचरम निषेकप्रथमानुकृष्टिखंडपय्र्यंतं निरंतर विशेषाधिकंगळपुर्वारव संख्येदं परस्परं विसदृशंगळप्पुवु । शक्तिविशेषवदमुं परस्परं विसदृशंगळेयप्पुवु । शक्तिविशेषदिने तु विसदृशंगळे - दोर्ड स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानमं नोडलुपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणमप्पुर्वारदं ॥ विदियं विदियं खंड अण्णोण्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । हेट्ठिलुक्कस्सादोणंतगुणादुवरिमजहण्णं ।। ९५७ ।। द्वितीयं द्वितीयं खंडमन्योन्यमपेक्ष्य विसदृशमधस्तनोत्कृष्ट वनंत गुणस्तूप रितनजघन्यं ॥ गुणहानिप्रथमादि निषेकंगळ द्वितीयं द्वितीयं खंडं गुणहानिचरम निषेकद्वितीय खंड पय्यं तं परस्परं निरंतरं चयाधिकं गळप्पुर्दारदं विसदृशंगळवु । स्थानविकल्पंग ळिदमुं शक्तिविशेषविंदमुमेकें दोडे स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टमं नोडलुपरितनजघन्यस्थानमनंतगुणमप्पुरिदं ॥ ईप्रकारर्दिदं रूपोनानुत्कृष्टि पदप्रमितंगळ नडेदुः — चरिमं चरिमं खंड अण्णोण्णं पेक्खिऊण विसरिच्छं । हेट्ठिलुक्कस्सादोणंतगुणादुवरिमजइण्णं ॥ ९५८|| चरमं चरमं खंडमन्योन्यमवेक्ष्य विसदृशं अधस्तनोंत्कृष्टादनंत गुणस्तुपरितनजघन्यं ॥ Jain Education International १० एवं रचित प्रथमादिगुणहानिष्वनुकृष्टेः प्रथमं प्रथमं खण्डमन्योन्यमपेक्ष्य संख्यया विसदृशं भवति । तिर्यगुपरि च तत्तच्चरमखण्डपर्यंतं तेषामेकैकचयाधिक्यात् । तथा शक्त्याऽपि स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टस्थानादुपरि २० तनजघन्यस्थानस्याप्यनन्तगुणत्वात् ॥ ९५६ ॥ गुणहानिप्रथमादिनिषेकाणां द्वितीयं द्वितीयं खण्डं गुणहानिचरम निषेक द्वितीयखण्डपर्यंतं परस्परं निरन्तरं चयाधिकमिति विसदृशं स्थानविकल्पैः शक्तिविशेषैश्चासदृशं स्वस्वाधस्तनोत्कृष्टादुपरितनजघन्यस्थानस्याप्यनन्तगुणत्वात् ॥९५७॥ एवं रूपोनानुकृष्टिपदमात्राणि नीत्वा -- For Private & Personal Use Only १५ इस प्रकार रचित प्रथमादि गुणहानियों में अनुकृष्टिका पहला पहला खण्ड परस्परकी २५ अपेक्षा करनेपर विसदृश है - संख्यारूपसे समान नहीं हैं; क्योंकि तिर्यकरूप रचना में ऊपरऊपर रचनारूप जो पहला पहला खण्ड है वह अपने-अपने अन्तिम खण्ड पर्यन्त एक-एक चय अधिक है । तथा शक्तिकी अपेक्षा भी अपने-अपने नीचेके उत्कृष्ट स्थानसे ऊपरका जघन्य स्थान भी अनन्त गुणा है । अतः पहला खण्ड समान नहीं है ॥ ९५६ ॥ गुणानि प्रथमादि निषेकका दूसरा दूसरा खण्ड गुणहानिके अन्तिम निषेक के दूसरे ३० खण्ड पर्यन्त निरन्तर एक-एक चय अधिक है अतः स्थानभेद और शक्तिभेदसे समान नहीं है । अर्थात् नीचेके दूसरे खण्ड के उत्कृष्टसे ऊपर का दूसरे खण्डका जघन्य भी अनन्त गुणा है । इसी प्रकार तीसरे आदि खण्डोंकी भी असमानता जानना ॥९५७॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828