Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे सर्वपदभंगंगरंतप्पल्लि पिंडपदंगळु प्रत्येकपदंगल में वित्तरनप्पुववेकसमयदोलु भव्या भव्यद्विकोळन्यतरत्पदमुमंत गतिगोळोदु लिंगंगळोवो, क्रोधाविकषायंगळोळो दोंदुं लेश्याषट्कदोळोवो, सम्यक्त्वंगळोळोंबों, मिम्यादृष्टयादि चतुर्दशगुणस्थानंगळोळु यथायोग्यंगळागि नियमदिवं युगपत्संभविसुववु ॥ अनंतरं मिध्यादृष्टियोळ प्रत्येकपदंगळं संभवंगळं पेन्दपरु :
पत्तेयपदा मिच्छे पण्णरसा पंच चेव उवजोगा।
दाणादी ओदयिये चत्तारि य जीवभावो य ॥८५७॥ प्रत्येकपदानि मिथ्यादृष्टौ पंचदश पंच चैवोपयोगाः । वानावयः औवयिके चत्वारि च जीवभावश्च ॥ १० मिथ्यादृष्टियोल पंचदश प्रमितंग प्रत्येकपदंगळप्पुववाउवे बोडे कुमतिकुश्रुतविभंगबत्र्य.
ज्ञानंगळं चक्षुरचक्षुद्देर्शनद्वपमुमे दो युपयोगपंचकमु दानलाभभोगोपभोग वोम्यंगळेबो दानादिपंचकमु मिन्यादर्शनमुमज्ञानमुमसंयममुमसिद्धत्वमुमेंबौदयिकभावदोळ नाल्कुं जीवत्वमुमें वितु प्रत्येकपदंगळ पदिनप्दप्पुवु । १५ ॥
विंडपदा पंचेव य भविदरदुगं गदी य लिंगं च ।
कोहादी लेस्सावि य इदि वीसपदा हु उड्ढेण ॥८५८।। पिंडपदानि पंचैव भव्येतरद्विकं गतिश्च लिगं च । क्रोधादयो लेश्या अपि च इति विंशतिपदानि खलूइँन ॥
तानि तु सर्वपदानि पिंडप्रत्येकभेदाद्विविधानि । तत्र पिंडपदेषु एकसमये भव्याभव्ययोः गतिषु लिगेषु क्रोषादिषु लेश्यासु सम्यक्त्वेषु चैकैकमेव गुणस्थानेषु यथायोग्य नियमेन युगपत् सम्भवति ॥८५६॥
युगपत्संभवानि प्रत्येकपदानि मिथ्यादृष्टी पंचदर्शव । तानि कानि ? यज्ञानाद्य द्विदर्शनान्येवं पंचोपयोगा दानादयः पंच औदयिके मिथ्यात्वाज्ञानासंयमासिद्धत्वानि चत्वारि जीवत्वं चेति ॥८५७॥
वे सर्वपद दो प्रकारके हैं-पिण्डपद और प्रत्येकपद। जिस भाव समूहमें-से एक समयमें एक जीवके एक-एक ही होता है सब नहीं होते उस भाव समूहको पिण्डपद कहते
हैं । जैसे चारों गतियोंमें-से एक जीवके एक कालमें एक गति ही होती है, चारों नहीं होती। २५ अतः गति पिण्डपद है। और जो भाव एक जीवके एक कालमें एक साथ भी होते हैं उनको
प्रत्येकपद कहते हैं । सो भव्य, अभव्य, गति, लिंग, क्रोधादि चार, लेश्या और सम्यक्त्व ये पिण्डपद हैं। क्योंकि इनमें से एक समयमें एक जीवके गुणस्थानोंमें यथायोग्य एक-एक ही नियमसे युगपद् होता है ।।८५६॥
एक साथ सम्भव प्रत्येकपद मिध्यादृष्टिमें पन्द्रह होते हैं, वे इस प्रकार हैं-तीन ३. अज्ञान, दो दर्शन, ये पाँच उपयोग, दान आदि पाँच लब्धियाँ, औदायिकमें-से मिथ्यात्व,
अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व ये चार और जीवत्व पारिणामिक ॥८५७॥
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