Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 617
________________ १२४१ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका दइवमेव परं मण्णे धिप्पउरुसमण्णत्थयं । एसो सालसमुत्तं गो कण्णो हण्णइ संगरे ॥८९१॥ देवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकं । एष सालसमुत्तंगः कर्णो हन्यते संगरे । एंदितु दैववादमकुं। संजोगमेवेत्ति वदंति तण्णा वेक्कचक्केण रहो पयादि । । अंधो य पंगू य वणप्पविट्ठा ते संपजुत्ता णयरं पविट्ठा ॥८९२।। संयोगमेवेति वदंति तज्जा नैत्रैकचक्रेण रथः प्रयाति । अंधश्च पंगुश्च वनं प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥ एंदितु संयोगवाद मक्कुं॥ सइउट्ठिया पसिद्धी दुवारा मेलिदेहि वि सुरेहिं । मज्झिमपंडवखित्ता माला पंचसुवि खित्तेव ।।८९३॥ सकृत्थिता प्रसिद्धिारा मिलितैरपि सुरैः। मध्यमपांडवक्षिप्ता माला पंचस्वपि क्षिप्तेव ॥ ये वितिदुलोकवावमक्कुं। किंबहुना । जावदिया वयणबहा तावदिया चैव होंति पयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ||८९४॥ यावंतो वचनमार्गा स्तावंत एव नयवादाः । यावंतो नयवादास्तावंत एव परसमयाः॥ १५ । देवमेव परं मन्ये धिक् पौरुषमनर्थकं एष सालसमुतुंगः कर्णो हन्यते संगरे इति दैववादः ॥८९१॥ संयोगमेवेति वदंति तज्ज्ञा नैवकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वनं प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तो नगरं प्रविष्टाविति संयोगवादः ।।८९२॥ सकृदुत्थिता प्रसिद्धिर्दुरा मिलितैरपि सुरैः, मध्यमपांडवक्षिप्ता माला पंचस्वपि क्षिप्तयेति लोकवादः किंबहुना ।।८९३।। २० यावन्तो वचनमार्गास्तावन्तो एव भवन्ति नयवादाः यावन्तो नयवादास्तावन्त एव भवन्ति परसमयाः ॥८९४॥ अथ परसमयिवचनानामसत्यत्वे कारणमाह मैं दैव-भाग्य को सर्वोत्कृष्ट मानता हूँ। पौरुष निरर्थक है उसे धिक्कार हो। देखो, सालवृक्षकी तरह ऊँचा कर्ण महाभारत के युद्ध में मारा गया। यह दैववाद है ॥८९१॥ दैव और पौरुषको जाननेवाले उन दोनोंके संयोगको ही मानते हैं। क्योंकि एक २५ पहियेसे रथ नहीं चलता। उदाहरण है-एक अन्धा और एक लँगड़ा वनमें फंस गये । अचानक दोनोंका वहाँ मिलाप हुआ और अन्धेके ऊपर लँगड़ा पुरुष बैठ गया और इस तरह दोनों नगरमें आ गये। यह संयोगवाद है ।।८९२|| . एक बार जो बात लोकमें फैल जाती है उसे सब देव भी मिलकर मिटा नहीं सकते। जैसे द्रौपदीने अर्जुनके गलेमें वरमाला डाली थी। किन्तु लोकमें प्रसिद्ध हो गया कि पाँचों ३० पाण्डवोंके गले में माला डाली है । अर्थात् लोकवाद भी एक मिथ्यावाद है ।।८९३|| जितने वचनके मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं। और जितने नयवाद हैं उतने पर समय हैं ।।८९४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828