Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्ड देव नृपति ज्ञानि यतिवृद्ध बाल मातृपितृगळे बो एंटु स्थानदोळ मनोविनय वचनविनय कायविनयदानविनयंगळु कर्तव्यंगळे वितु द्वात्रिंशद्वैनयिकवाद भेदंगळप्पुवु । ३२॥ देवे मनोवचनकायदानविनयः कर्तव्यः एंदितु देवनोळु नाल्कु विनयमागलु देवादिगळेंटरोळं मूवत्तेरडु भंगंगळ प्पुर्वे बुदत्थं ॥
सच्छंददिविहि वियप्पियाणि तेसविजुत्ताणि सयाणि तिण्णि ।
पासंडिणं वाउलकारणाणि अण्णाणिचित्ताणि हरंति ताणि ॥८८९॥ स्वच्छंददृष्टिविकल्पितानि त्रिषष्टियुक्तानि शतानि त्रीणि । पाषंडिनां व्याकुलकारणानि। अजानि चित्तानि हरति तानि ॥
__ स्वच्छंददृष्टिळिदं विकल्पिसल्पट्ट मूनूररुवत्तमूरुं पाषंडिगळ व्याकुलकारणवचनंगळु १. अज्ञानिगळ चित्तंगळं मिथ्यात्वकम्र्मोददिदं बळमाडुववु ॥ मत्तं :
आलस्सड्ढो णिरुत्थाहो फलं किंचिण्ण भुंजदे।
थणं खीरादिपाणं वा पउरुसेण विणा " हि ॥८९०॥ आलस्याढयो निरुत्साहः फलं किंचिन्न भुंक्ते। स्तन क्षीरादि पानवत् पौरुषेण विना न हि ॥ एंदितु पौरुषवावमक्कुं।
देव-नृपति-ज्ञानि-यति-वृद्ध-बाल-मातृ-पितृष्वष्टसु मनोवचनकायदानविनयाश्चत्वारः कर्तव्याश्चेति द्वात्रिंशद्वैनयिकवादाः स्युः ।।८८८॥
स्वच्छन्ददृष्टिभिर्विकल्पितानि त्रिषष्टियुतत्रिशतानि पाखंडिनां व्याकुलकारणवचनानि तान्यज्ञानिचित्तानि हरंति मिथ्यात्वोदयात् ।।८८९।। पुनः
आलस्याढ्यो निरुत्साहः फलं किंचिन्न भुक्ते स्तनक्षीरादिपानवत् पौरुषेण विना न होति पौरुषवादः ॥८९०॥
वैनयिकवादके मूल भंग कहते हैं
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता-पिताकी मन, वचन, काय और दानसम्मानसे विनय करना चाहिए। इस तरह आठ प्रकारके व्यक्तियोंकी चार प्रकारसे विनय करनेसे बत्तीस भेद होते हैं।
विशेषार्थ-सब देवों और सब धर्मोको समान मानकर सबकी समान विनय करना १ वैनयिकवाद है। उक्त आठ व्यक्तियों में प्रायः सभी गर्भित हो जाते हैं। विनयवादमें विवेकको स्थान नहीं है ।।८८८॥
इस प्रकार स्वच्छन्द दृष्टिवालोंके द्वारा कल्पित तीन सौ तिरसठ मतोंके वचन जीवोंमें व्याकुलता पैदा करने में कारण हैं। मिथ्यात्वसे ग्रस्त अज्ञानीजन उन वचनोंको सुनकर मुग्ध हो जाते हैं ।।८८९।।
अन्य भी एकान्तवादोंको कहते हैं
जो आलस्यसे भरपूर है, जिसे कुछ भी करनेका उत्साह नहीं है वह कुछ भी फल भोगनेमें नहीं है। बिना पौरुषके माताके स्तनसे दूध भी नहीं पिया जा सकता है। अतः पौरुषसे ही कार्य सिद्धि होती है। यह पौरुषवाद है ।।८९०॥
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