Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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अथ त्रिकरणचूलिकाधिकारः ॥८॥
णमह गुणरयणभूसण सिद्धतामियमहद्धिभवभावं ।
वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥८९६॥ नमत गुणरत्नभूषण सिद्धांतामृतमहाब्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंद्रं निर्मलगुणमिद्रनंदिगुरुं ॥ सुगम ॥
इगिवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं ।
पढम अधापवत्तं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥८९७॥ एकविंशतिमोहक्षपणोपशमननिमित्तानि त्रिकरणानि तत्र । प्रथममधःप्रवृत्तकरणं तु करोत्यप्रमत्तः॥
अनंतानुबंधिरहित द्वादशकषाय नवनोकषायम बेकविंशतिमोहनीयकर्मक्षपणोपशमननिमित्तं- १० गळधःप्रवृत्तापूर्वकरणानिवृत्तिभेददिदं त्रिकरणंगळप्पुववरोळु प्रथममधःप्रवृत्तकरणमनप्रमत्तसंयतं माळकुमातं सातिशयाप्रमत्तन बोनक्कुं।
जम्हा उवरिमभावा हेट्ठिमभावेहि सरिसगा होति ।
तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिद्दिट्ट ।।८९८।। यस्मादुपरिमभावा अधस्तनभावैः सदृशा भवंति । तस्मात्प्रथमं करणमधःप्रवृत्तमिति १५ निद्दिष्टं ॥
नमत गुणरत्नभूषण सिद्धान्तामृतमहाधिभवभावं वरवीरनन्दिचन्द्रं निर्मलगुणमिद्रनन्दिगुरुं ।।८९६॥
अनन्तानुबन्धिभ्योऽन्यकविशतिचारित्रमोहनीयानां क्षपणाया उपशमस्य च कारणानि त्रीण्यष:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि तेषु प्रथममधःप्रवृत्तकरणं तु सातिशयाप्रमत्त एव करोति ॥८९७॥
गुणरूपी रत्नके आभूषणोंसे शोभित हे चामुण्डराय ! सिद्धान्तरूपी अमृतके महासमुद्र- २० से प्रकट होनेवाले आचार्य वीरनन्दिरूपी चन्द्रमाको तथा निर्मल गुणोंसे शोभित आचार्य इन्द्रनन्दि गुरुको नमस्कार करो ॥८९६॥
विशेषार्थ-आचार्य नेमिचन्द्रने चामुण्डरायके लिए गोम्मटसारकी रचना की थी। वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि उनके गुरु थे। इस प्रकरणमें अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोंका कथन है जो जीवकाण्डके प्रारम्भमें आ चुका है। यहाँ आचार्य उनको २५ लेकर एक पृथक् अधिकार द्वारा कथन करते हैं। जो बात यहाँ स्पष्ट न हो उसे जीवकाण्डसे जानना चाहिए ॥८९६||
अनन्तानुबन्धी चारके बिना चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी क्षपणा और उपशमनामें कारण तीन प्रकारके परिणाम हैं। उन्हें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कहते हैं। उनमें से प्रथम अधःप्रवृत्तकरणको अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती करता है ।।८९७॥ ३०
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