Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति बीवतत्त्वप्रदीपिका से त्रसजीवनादोड सम्यक्त्वमिश्रप्रकृतिगळ्गे स्थितिसत्वमन्नेवरमुदधिपृथक्त्वमवशिष्टमक्कुमन्नेवरं वेदकयोग्यकालमें बुदक्कु । मेकाक्षे सति एकेंद्रियजीवमादोडे तत्सम्यक्त्वमिश्रप्रकृति. गळगे स्थितिसत्वमेन्नेवर पल्यासंख्यातेकभागोनैकसागरोपममवशिष्टमक्कुमन्नेवरं वेदकयोग्यकालं मबुदक्कुं । ततः अल्लिदं मेले उपशमस्य कालः। आ त्रसैकेंद्रियंगळगे उपशमकालंगळदु पेळलपटुतु। अनंतरं तेजोद्वयक्कुवेल्लनयोग्यप्रकृतियं पेन्दपरु:
तेउदुगे मणुवदुगं उच्चं उव्वेल्लदे जहण्णिदरं ।
पल्लासंखेज्जदिमं उव्वेन्लणकालपरिमाणं ॥६१६॥ तेजोद्विके मनुष्यद्विकमुच्चर्गोत्रमुवेल्यते जघन्येतरं। पल्यासंख्यातेकभागमुवेल्लनकाल प्रमाणं॥
तेजोवायुकायिकजोवंगळोळु मनुष्यद्विकमुमुच्चग्र्गोत्रमुमुवेल्लनमं माडल्पडुवुवु । उद्वेल्लनमं माळ्पकालमुं जघन्योत्कृष्टदिदं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमेयक्कुमदं पेब्दपरु :
पन्लासंखेज्जदिमं ठिदिमुव्वेन्लदि मुहुत्तअंतेण ।
संखेज्जसायरठिदि पल्लासंखेज्जकालेण ॥६१७॥ पल्यासंख्यातकभागां स्थितिमुवेल्लयत्यंतर्मुहत्तंकालेन । संख्येयसागरस्थिति पल्यासंख्या- तेकभागेन ।
सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्याः स्थितिसत्वं यावत्रसे उदधिपृथक्त्वं एकाक्षे च पल्यासंख्यातकभागोनसागरोपममवशिष्यते तावद्वेदकयोग्यकालो भण्यते । तत उपर्युपशमकाल इति ॥६१५॥ तेजोद्वयस्योद्वेल्लनप्रकृतीराह
तेजोवातकायिकयोर्मनुष्यद्विकमुच्चैर्गोत्रं चोद्वेल्ल्यते। जघन्यमुत्कृष्टं चोद्वेल्लनकारणकालप्रमाणं पल्यासंख्यातेकभागः ॥६१६॥ तदेवाह
सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीयका स्थिति सत्त्व अर्थात् पूर्व में जो स्थिति बँधी थी वह सत्तारूप स्थिति जबतक त्रसके तो पृथक्त्व सागर प्रमाण शेष रहती है और एकेन्द्रियके पल्यके असंख्यातवें भाग हीन एक सागर प्रमाण शेष रहती है तबतकके कालको वेदक योग्य काल कहते हैं। उससे ऊपर उससे भी हीन स्थिति सत्त्व होनेपर उपशमयोग्य काल । होता है ।।६१५॥
२५ आगे तेजकाय, वायुकायके उद्वेलन योग्य प्रकृतियाँ कहते हैं
तेजकाय, वायकायमें मनुष्य द्विक और उच्चगोत्र ये तीन उद्वेलन रूप होती हैं। उस उद्वेलनमें कारण कालका प्रमाण जघन्य और उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। इतने कालमें उनकी सब स्थितिके निषेकोंको उद्वेलनारूप करता है ॥६१६।।
वही कहते हैं।
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