Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे औदयिकभावंगळ गतिचतुष्कम लिंगत्रितययम कसायचतुष्टयमं तथा मिथ्यात्वमं लेश्याषट्कमुमसिद्धत्वमुमसंयममुमज्ञानमुमें दितेकविंशतिप्रमितंगळप्पुवु ॥
जीवत्तं भव्वत्तमभव्बत्तादी भवंति परिणामा।
इदि मूलुत्तरभावा भंगवियप्पे बहुजाणे ।।८१९॥ जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वादयो भवंति परिणामाः। इति मूलोतरभावा भंगविकल्पे बहून् जानीहि ॥
जीवत्वम भव्यत्वमुमभव्यत्वमुमेंबिउ मोदलावउ पारिणामिकंगळप्पवितु मलभावंगळयदक्कमुत्तरभावंगळु त्रिपंचाशत्प्रमितंगळप्पुर्वेदरियल्पडुगु।।
मूलभावंगळ्गमुत्तरभावंगळगं संदृष्टि :-औपशमिक २। क्षायिक ९ । क्षायोपमिक १० १८ । औदयिक २१ । पारिणामिक ३। इउ भंगविकल्पदोळु बहुविकल्पंगळप्पुवेंदु नोनरि भव्य ।
ओघादेसे संभवभावं मूलुसरं ठवेदूण ।
पत्तेये अविरुद्धे परसगजोगेवि भंगा हु ॥८२०॥ ओघे आदेसे संभवभावं मूलोत्तरं स्थापयित्वा । प्रत्येकेऽविरुद्ध परसुगयोगेपि भंगाः खलु ॥
ओघे गुणस्थानदोळं आदेशे मार्गणास्थानदोळं संभवभावं संभविसुव भावमं मूलोत्तरं १५ मलभावमनुत्तरभावेमं स्थापयित्वा स्थापिसि प्रत्येकेऽविरुद्धे आ स्थापिसिद मूलोत्तरभावदोळ
औदयिकभावाः पुनः चतुर्गतिविलिंगचतुःकषायाः, तथा च मिथ्यात्वं षड्लेश्या असिद्धासंयमाज्ञानानि इत्येकविंशतिर्भवन्ति ॥८१८॥
जीवत्वं भव्यत्वं अभव्यत्वादयश्च पारिणामिकभावा भवन्ति । इत्येवं मलभावाः पंच उत्तरभावास्त्रि. पंचाशत् भंगविकल्पा बहव इति जानीहि ॥८१९।। २० गुणस्थाने मार्गणास्थाने च सम्भवतो मूलभावानुत्तरभावांश्च संस्थाप्याक्षसंचारक्रमेण प्रत्येके
औदयिकभाव चार गति, तीन वेद, चार कषाय, एक मिथ्यात्व, छह लेश्या, असिद्ध, असंयम, अज्ञानके भेदसे इक्कीस हैं ।।८१८।।
विशेषार्थ-सामान्यकमके उदयरूप सिद्ध पदका अभाव असिद्धत्व है। चारित्रमोहके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयसे चारित्रका अभाव असंयम है। ज्ञानावरणके उदयसे जो ज्ञान २५ प्रकट नहीं वह अज्ञान है । मिथ्यादृष्टि छद्मस्थके जितना ज्ञान प्रकट होता है वह क्षयोपशम
रूप अज्ञान है जिसे मिथ्याज्ञान कहते हैं। और जितना ज्ञान प्रकट नहीं है सब जीवोंके वह अज्ञान औदयिक है ।।८१८॥
___ जीवत्व भव्यत्व अभव्यत्व आदि पारिणामिक भाव होते हैं। इस प्रकार मूलभाव पाँच हैं उत्तरभाव तरेपन हैं इनके भंग विकल्प बहुत हैं ।।८१९।।
विशेषार्थ-जीवत्व तो द्रव्य स्वभाव है ही। भव्यत्व अभव्यत्व भी किसी कमके निमित्तसे नहीं होते, अनादि हैं । अतः इन्हें पारिणामिक कहा है ॥ १. म परस्वयो ।
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