Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
वादि त्रिस्थानंळप्पुवसंयतनोळ सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतचतःकूटंगळोळपुनरुक्तनवादित्रिस्थानंगळ तत्सम्यक्त्वप्रकृत्युदयरहितोपशमक्षायिकसम्यक्त्वयुतचतर्गतिजासंयतनोळष्टादिचतुःस्थानंगळोळपु - नरुक्त षट्प्रकृत्युदयस्थानमुमंतु नवादिचतुरुदयस्थानंगळु पेळल्पद्रुवु । मत्तमेकविंशतिसत्त्वस्थानयुतसप्तदशबंधकं चतुर्गतिजक्षायिकसम्यग्दृष्टियसंयतनप्पुदरिनातन विवक्षेयिंदं सम्यक्त्वप्रकृ. ५ त्युदयरहितचतुःकूटंगळोळपुनरुक्ताष्टादित्रिस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुरिंद मल्लि प्रथमनवोदयस्थानमिल्ले दित पेळल्पटुदु । मत्तमा त्रिद्विविंशतिसत्त्वस्थानद्वयं मनुष्यसप्तदशबंधकासंयतनोळेयक्कुमातनुं वेदकसम्यक्त्वयुतदर्शनमोहक्षपकनेयाकुमप्पुदरिदं सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतनवादित्रिस्थानंगळे संभविसुगुमप्पुरिंदमल्लिचरमषट्प्रकृतिस्थानोदय मिल्ले वितु पेळल्पटुदु ॥
तेरणवे पुबंसे अडादिचउ सगचउण्हमुदयाणं ।
सत्तरसंव वियारो पणगुवसंतसगेसु दो उदया ॥६८२॥ त्रयोदशनवसु पूर्ववदंशेष्वष्टादि चतुःसप्तचतुर्णामुदयानां । सप्तदशवद्विकारः पंचकोपशांतांशकेषु द्वावुदयौ ॥
त्रयोदशप्रकृतिनवप्रकृतिबंधकरुगळ क्रमदिदंतिय॑ग्मनुष्यदेशसंयतरुगळं प्रमत्ताप्रमत्तोपशमकक्षपकापूर्वकरणरुगळुमप्परवर्गटोळ, पूर्व सप्तदशबंधकनोळ पळद सत्त्वस्थानंगळेयप्पु१५
वल्लि अष्टादिचतुरुदयस्थानंगळं सप्तादिचतुरुदयस्थानंगळं क्रदिदमष्टाविंशति चतुर्विशतिसत्त्वस्थानद्वयंगळनुळ्ळ त्रयोदशबंधकनोळं नवबंधकनोळमप्पुवा अष्टादिचतुरुदयस्थानंगळोळु प्रथमाष्टप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिसत्त्वस्थानयुतरुगळोळिल्ल, त्रिद्विशतिसत्त्वस्थानयुतरोळ अंतिम मिश्रे मिश्रप्रकृतियुतचतुःकूटजानि त्रीणि । असंयते सम्यक्त्वप्रकृतियुतवियु कूटाष्ट कजानि चत्वारि । सप्तदशकबन्धैकविंशतिकसत्त्वे चतुर्गत्यसंयते क्षायिकसम्यग्दृष्टित्वात्सम्यक्त्वप्रकृतियुतचतुष्कूटाभावान्न प्रथम नवोदयस्थानं तेनाष्टकादोनि त्रीणि । सप्तदशकबन्धत्रिद्वयधिकविंशतिकसत्त्वे दर्शनमोहक्षपकमनुष्यवेदकसम्यग्दृष्ट्यसंयते सम्यक्त्वप्रकृत्युदययुतत्वादन्तिमं षडुदयस्थानं नेति नवकादोनि त्रीणि ॥६८१॥
त्रयोदशकबन्धे तिर्यग्मनुष्यदेशसंतते नवकबन्धे प्रमत्ताप्रमत्तोभयापूर्वकरणे च सप्तदशकबन्धोक्तमेव सत्त्वं, तत्राष्टकादीनि सप्तकादीन्युदयस्थानानि चत्वारि । किन्तु एकविंशतिकसत्त्वे त्रयोदशकबन्धे प्रथमं अष्टोदय
असंयतमें सम्यक्त्व प्रकृति सहित और रहित आठ कूटोंसे उत्पन्न हुए चार उदयस्थान है। सतरहके बन्ध सहित इक्कीसके सत्त्वमें चारों गतिके असंयतमें क्षायिक ' होनेके कारण सम्यक्त्व प्रकृति सहित चार कुट न होनेसे पहला नौका उदयस्थान नहीं है.
अतः आठ आदि तीन उदयस्थान हैं । सतरहके बन्धसहित तेईस, बाईसके सत्त्वमें दर्शन मोहकी क्षपणासे युक्त मनुष्य वेदक सम्यग्दृष्टी असंयतमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसहित कूट होनेसे अन्तिम छहका उदयस्थान नहीं है, अतः नौ आदि तीन ही उदयस्थान हैं ॥६८१॥
तेरहके बन्धसहित तिथंच और मनुष्य देशसंयतमें तथा नौके बन्धक प्रमत्त, अप्रमत्त ३०
और दोनों श्रेणीके अपूर्वकरणमें, सतरह के बन्धकमें जो सत्त्व कहा है उस सत्त्वके होनेपर देशसंयतमें आठ आदि चार, और शेषमें सात आदि चार उदयस्थान हैं। किन्तु इक्कीसके सत्त्व सहित तेरहके बन्धकमें तो पहला आठका उदयस्थान नहीं है। और नौके बन्धकमें
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