Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
पंचप्रकृतिस्थानोदय मिल्ल | सप्तादिचतुरुदयस्थानं गळोळ, नवबंधकन एकविंशतिसत्त्वस्थानदोळ, प्रथम सप्त प्रकृतिस्थानोदय मिल्ल | त्रिद्विविंशतिसत्त्वनवबंध कनोळ चरमचतुः प्रकृतिस्थानोदयं संभविसदे बी पल्लटमरियल्पडुगुं । पंचप्रकृतिबंध नुमुपशांतकषाघन सत्त्वस्थानंगळप्प अष्टचतुरेकविशतिसत्त्वस्थानं गळतुळ निवृत्तिकरणनोळ, द्विप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । मत्तमा पंचप्रकृतिबंधकनोळं चतुःप्रकृतिबंधकोळ द्विप्रकृत्युदयमक्कुमा बादरनोळ, सत्त्वस्थानसंभवविशेषमं पेदपरु :तेणेवं तेरतिये चदुबंधे पुव्वसत्तगेसु तहा । वसंतसेयारतिये एक्को हवे उदओ || ६८३ ||
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तेनैवं त्रयोदशत्रये चतुब्बंधे पूर्वसत्त्वकेषु तथा । तेनोपशांतां शैकादशत्रये एको भवेदुदयः ॥ तेन सह आ पंचप्रकृतिबंधदोडने कूडिदनिवृत्तिक्षपकनोळ, त्रयोदशद्वादशैकादशप्रकृतिस्थानत्रयस वदोळ, एवं इहिर्ग द्विप्रकृत्युदयस्थानमक्कु । चतुब्बंधे पूर्व्वसत्वकेषु तथा मत्तं चतुः- १० प्रकृतिबंधकमष्टाविंशत्यादि एकादशप्रकृतिस्थानावसानमाद पूर्व सत्त्वस्थानंगळमुळ्ळ बादरनोळमंत द्विप्रकृतिस्थानोदयमक्कु । तेनोपशांतांशैकादशत्रये मत्तमा चतुब्बंधयुतोपशांतकषायाष्टाविंशत्यादि त्रिस्थानसत्त्वमुमेकादशादित्रिस्थानसत्त्वबादरतो, एको भवेदुदयः एकप्रकृत्युदयस्थानमक्कुं ॥
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स्थानं न | नवकबन्धे सप्तकोदयस्थानं न । त्रिद्वयधिकविंशतिकसत्त्वे त्रयोदशकबन्धे अन्तिमं पंचकोदयस्थानं न । नवकबन्धे चतुष्कोदयस्थानं न तत्स्वकीयोदयस्थानानां चतुर्णां सप्तदशकबन्धवद्विचार इति प्रतिपादनात् । १५ पंचकबन्धे उपशान्तकषायोक्ताष्टचतुरेका प्रविशतिकसत्वेऽनिवृत्तिकरणे द्विकोदयः । पुनः तत्पंचकबन्धे चतुष्कन्धे च द्विकोदयः स्यात् ॥ ६८२ ॥
तत्पंचकबन्धेन सहितेऽनिवृत्तिक्षपके त्रिद्वयेकाग्रदशकसत्वे तथा चतुष्कबन्धेऽष्टाविंशतिकाद्येकादशकांतपूर्वंसत्त्वेऽप्येवं द्विकोदयः स्यात् । पुनः तच्चतुविधे उपशान्तकषायाष्टाविंशतिकादित्रिसत्वे एकादशकादित्रिसत्वे च वादरे एककोदयः स्यात् ||६८३॥
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सातका उदयस्थान नहीं है । तेईस, बाईस के सत्त्व के साथ तेरह के बन्धमें अन्तिम पाँचका उदयस्थान नहीं है तथा नौके बन्ध सहित में चारका उदयस्थान नहीं है; क्योंकि अपने चार उदयस्थानों में सतरह के बन्धकी तरह विचार है ऐसा कहा है अर्थात् सतरह के बन्धमें जैसे क्षायिक और दर्शन मोहके क्षपक वेदक सम्यग्दृष्टीकी अपेक्षा कहा है वैसा ही जानना । पाँच के बन्धक अनिवृत्तिकरण में उपशान्त कषायमें कहे अठाईस चौबीस इक्कीसके सत्व में २५ दोका उदय है । पुनः पाँचके और चारके बन्ध सहित में भी दोका उदय है ||६८२ ॥
वही कहते हैं
पांच के बन्धसहित क्षपक अनिवृत्तिकरण में तेरह बारह ग्यारह के सत्त्वमें तथा चारके बन्ध सहित अठाईस आदि तीन और तेरह आदि तीनका सत्व होते हुए भी दोका उदयस्थान होता है । चारके बन्धसहित अनिवृत्तिकरण में उपशान्त कषाय में कहे अठाईस आदि ३० तीन व ग्यारह आदि तीनके सत्त्वमें एकका उदय है || ६८३ ||
क- १२८
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