Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
१०६३ एंदिता विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रकालदोळमा बंधस्थानं संभविसुवुदल्ते बुदत्थंमल्लि. द्वयशोतिचतुरशीतिसत्त्वस्थानंगळं संभविसर्वत दोर्ड द्वयशीतिसत्त्वस्थानमुळ्ळ तेजोवायुकायिक. जीवंगळा पंचेंद्रियासंज्ञिसंज्ञिमिथ्यादृष्टिगोनु पुटुवरंतु पुट्टिदोडमा विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळमा सत्त्वस्थानं कथंचिदुटु कथंचिदिल्लमते दोडे आ विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रकालदोळं तिर्यग्गतियुतमागि त्रयोविंशतिपंचविंशति षड्विंशतिस्थानंगळमं नवविशतित्रिंशत्प्रकृति- ५ स्थानंगळुमं तिर्यग्गतियुतमागि कटुवागळ मनुष्यद्विकं बंधमिल्लप्पुरिदं तत्सत्त्वस्थानं संभविसुगुमा विग्रहगतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळं मनुष्यगतिद्वययुतपंचविंशतिस्थानमुमं नवविंशतिस्थानमुमं कटुवागळ तद्वयशीतिसत्त्वस्थानं संभविसदप्पुदरिंद। मतमा अष्टाविंशतिस्थानमं शरीरपाप्तियोळ कटुव पंचेंद्रियासंज्ञिसंज्ञिमिथ्यादृष्टिगळुमेकेंद्रियविकलत्रयभवदोळ नारक चतुष्टयमनुवेल्लनमं माडि बंदी असंज्ञिसंज्ञिपचेंद्रियपर्याप्तरो पुटुवरंतु पुट्टिदोडमा विग्रह- १० गतियोळं शरीरमिश्रयोगकालदोळं नियमदिदमा सत्त्वस्थानं संभविसुगुमे ते दोडा चतुरशीतिसत्त्वस्थानयुतजीवंगळा कालदो मिथ्यादृष्टिगळप्पुदरिंद देवद्विकमुं नारकचतुष्टयमुं बंधमागवप्पुरिंदसो अष्टाविंशतिस्थानबंधकालं शरीरपर्याप्तियुतकालमप्पुदरिंदं नारकचतुष्टयमं कट्टिदोडमा जीवं. गळोळष्टाशीतिसत्त्वस्थानं संभविसुगुं मेणु सुरचतुष्टयमं कट्टिदोडमा जीवंगळोळ अष्टाशोतिप्रकृतिसत्त्वस्थानं संभविसुगुमप्पुरिदमा असंज्ञिसज्ञिपंचेंद्रियमिथ्यादृष्टिगळोळ, द्वानवतिनवत्यष्टाशीति- १५ सत्त्वस्थानत्रयसंभवं पेळल्पद्रुदु। मनुष्यगतियोछ, मिथ्यादृष्टिजीवेगळो अष्टाविंशतिस्थानं तिर्यक्पंचेंद्रियपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळगे पेळ्दंते शरीरपर्याप्तियोळ नरकगतियुतमागियुं देवगतिनानाविग्रहगतिशरीरमिश्रकालयोस्तियंग्गतियुतत्रिपंचषड्नवदशाग्रविशतिकानि बध्नतां संभवति । मनुष्यद्विकयुतपंचनवाविंशतिके बध्नतां न संभवति । चतुरशीतिकं चैक विकलेन्द्रियभवे नारकचतुष्कमुद्वैल्य पंचेन्द्रियपर्याप्तेषूत्यत्त्य तस्मिन्नेव कालद्वये संभवति ततोऽस्मिन्नष्टाविंशतिकबन्धकाले तयोः सत्त्वं नोक्तं ।
__ मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेः बं २८ न दे, उ २८॥ २९॥ ३०। स ९२॥ ९१॥ ९०। ८८ । उद्वेल्लितानुद्वेल्लितमनुष्यद्विकतेजोवायूनां मनुष्यायुरबन्धादत्रानुत्पत्तेर्न द्वयशोतिकसत्त्वं, उद्वेल्लितनारकचतुष्कैकविकलेन्द्रियाणासहित अठाईसका बन्ध होने पर उदय तीस, इकतीस, सत्त्व बानबे, नब्बेका है। बयासीके सत्त्वसहित तेजकाय वातकायसे मरकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो विग्रहगति और शरीर मिश्रकालमें तिर्यचग्गति सहित तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीसका बन्ध होनेपर बयासीका २५ सत्त्व होता है। मनुष्यद्विक सहित पच्चीस और उनतीसका बन्ध होते बयासीका सत्त्व नहीं होता। चौरासीका सत्त्व एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियके भवमें नारक चतुष्ककी उद्वेलना करके पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेपर पूर्वोक्त दोनों कालोंमें होता है। इसलिए अठाईसके बन्ध होनेके काल में बयासी और चौरासीका सत्त्व नहीं कहा। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टिके नरक या देवगति सहित अठाईसके बन्धमें उदय अठाईस, उनतीस, तीसका और सत्त्व बानबे, इक्यानबे, नब्बे और अट्ठासीका है। मनुष्य द्विककी उद्वेलना जिनकी हुई है या नहीं हुई है ऐसे र तेजकाय, वायुकायके मनुष्यायुका बन्ध न होनेसे वे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते। इससे बयासीका सत्व नहीं होता। तथा जो नारक चतुष्ककी उद्वेलना सहित एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय
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