Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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ई नवस्थानंगळोळक्षमं प्रत्येकमिरिसि "पढमक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदिक्खो । दोणि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ।" एंदितु जीवकांडदोळ प्रमत्तसंयतंर्ग प्रमादविकल्पंगळं पेवल्लि पेदंते भयंगळु तरल्पडुववंतु तरल्पडुत्तिरलु संस्थानषट्कर्म संहनन
कद गुणिसि । ६ । ६ । लब्धभूत षट्त्रिंशद् भंगंगळं ३६ । सप्तद्विकंगळदं । २ । २ । २ । २ । २ । २ । २ । गुणिसिदोर्ड । ३६ । १२८ । अष्टोत्तरषट्छताधिक चतुः सहस्रप्रमितभंगंगळ ४६०८ अप्पुवु । इवरो नरकगतियुतबंधस्थानवोळं सर्व्वापर्य्याप्त युतस्थानं गळोळसे निर्तनितु मंगळ संभविगुर्म बडे पेदपरु :
तत्थासत्थो णारयसव्वापुण्णेण होदि बंधो दु । एक्कदराभावादो तत्थेक्को चैव भंगो दु || ५३३ ॥
तत्राशस्तो नारक सर्व्वापूर्णेन भवति बंधस्तु । एकतराभावात्तत्रे कश्चैव भंगस्तु ॥ तत्र तेषु मध्ये आ बंधस्थानंगळोळ नारकसर्व्वापूर्णेन नरकगतिनामकम्मंदोडर्नयुं तु म सस्थावरयुतसत्र पूर्णेन सर्व्वापर्याप्तिदोडर्नयुं बंधः बंध अशस्तो भवति अप्रशस्त मे यक्कुमेबोर्ड एकतराभावात् इतरप्रतिपक्षे प्रकृतिबंधाभावमत्रकुमपुर्दा रिदमदु कारणदिदं तत्रैकश्चैव भंगस्तु आ नरकगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिबंधस्थानदोळं सर्व्वत्र सस्थावरापर्य्याप्तयुत त्रयोविंशतिपंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानंगळोळं तु मते एकभंगमेयक्कुं २३ । २५ अ कारणमागि मुंपेल्वेक १५ चत्वारिंशज्जीवपवंगळोळ बंघविवक्षयवं भाविभवजातकम्मैपदंगळमूवत्तारप्पुवव रोळु नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमोवेयक्कु मदवर्क भंगमुमो देवकुं एकेंद्रियभेदंगळप्प
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इन नामकर्मके बन्धस्थानोंके भंग कहते हैं
छह संस्थान, छह संहनन, विहायोगति युगल, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, आदेय, यश-कीर्ति के युगल, इन सबको ऊपर-ऊपर स्थापित करके अविरुद्ध एक-एकका ग्रहण करें; क्योंकि इनमें से एक एकका ही बन्ध होता है । अत: ६४६x२x२४२४२x२x२x२ इनको परस्परमें गुणा करनेपर चार हजार छह सौ आठ भंग होते हैं ।
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संस्थाप्य अविरुद्धकतर ग्रहणाद् बंघस्थानेषु खल्वष्टा ग्रषट्छताधिकचतुः सहस्रीं भंगा भवंति ४६०८ ||५३२ ॥ अत्र नरकगतियुतस्य सर्वापर्याप्तयुतानां च कतीति चेदाह -
तत्र प्रशस्ता प्रशस्त बंधमध्ये नरकगत्या प्रसस्थावरयुतसर्वा पर्याप्तेन च बंघः, अप्रशस्त एव स्यात् २०
भावार्थ यह है कि प्रकृतिके बदलनेसे भंग होता है। जैसे प्रथम संस्थान सहित स्थान कहा। पीछे दूसरे सहित कहा। इस तरह एक-एक प्रकृतिके बदलने से भंग होते हैं ॥ ५३२॥ न प्रशस्त और अप्रशस्त बन्धरूप प्रकृतियों में से नरकगति के साथ हुण्डक संस्थान अप्रशस्त विहायोगति आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है । इसी प्रकार सस्थावर सहित अपर्याप्त के साथ दुभंग-अनादेय आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। क्योंकि इनमें बन्धयोग्य प्रकृतिकी प्रतिपक्षी प्रकृतिका बन्ध नहीं है । संस्थान आदिमें से
१. पक्षप्रशस्त ।
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