Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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दन्यशरीरपर्य्याप्त्यादिकालंगळोळ सासादनरुगळु मिध्यादृष्टिगळागि पोपरपुर्दारवमातं शरीरपर्याप्त्यादिकालस्थानंगळु संभविसवु । सासादनंर्ग नवविंशतिप्रकृतिस्थानंगळ देवनारकसगळोकोदो दागलेरडे भंगंगळपुवु २९ सासादनंर्ग त्रिशत्प्रकृतिस्थानबोळ तिर्य्यग्मनुष्यरुगळ भाषा
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पर्य्याप्तिस्थानभंगंगळु प्रत्येकं सासिरदनूरय्व तेरडागलेरडरोळमेरड सासिरद मूनूर नाकुं ३० सासादनंगे एकत्रिशत्प्रकृत्युदयस्थानदोळ संज्ञिजीवनुद्योतयुतभाषापर्व्याप्तियोळ सासिरदनूरव ५ तेरडु भंगंगळप्पु ३१ मिग वेवनारकरुगळ भाषापर्य्याप्तियोळु नवविंशतिस्थानंगळे रडेयपूवु
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२९ दे । नां । मिश्र त्रिपत्प्रकृतिस्थानवोळु संज्ञिपंचेद्रियमनुष्यरुगळोळेरड सासिरव नूनूर नाकु भंगंगळवु ३० मिश्रंगे एकत्रिंशत्प्रकृतिस्थानंगळु संज्ञिपंचेंद्रियतिय्यंचनोळुद्योतयुतस्थानभंगळ, सासिरव नूरय्वर्त्तरडवु ३१ असंयतनोळ, चतुग्र्गतिजरोळ प्रत्येकमो वो दु स्थानमागलु नाल्कुगतिगळगमेकविंशतिस्थाननंगळ, नाल्कपुत्र २१ मत्तमसंयततंगे पंचविशति १० स्थानदोळ, धम्र्मेयनारक सौधर्मादिदेवकर्कळ संबंधिद्विभंगंगळप्पुवु २५ असंयतं षड्वशतिस्थानदोलु संज्ञिभोगभूमितिय्यं चंगे सर्व्वमुं शुभप्रकृत्युदयमप्पुवरिवल्लियों दुं २६ कर्मभूमिसंज्ञि
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नात्र सप्तविंशतिकाष्टविंशतिकोदयः शरीरपर्याप्त्यादिकालेषु मिथ्यादृष्टित्वसंभवात् । नवविंशतिकस्य देवनारकयोरेकैक इति द्वौ । त्रिशतकस्य तिर्यग्मनुष्ययोर्भाषापर्याप्तो प्रत्येकं द्वापंचाशद का दशशतीति चतुरप्रत्रयोविंशतिशती । एकत्रिंशत्कस्य संज्ञिनो भाषापर्याप्तावुद्योतयुतद्वापंचाशदग्रे का दशशती । मिश्र देवनारकयोर्भाषापर्याप्तौं नव- १५ विशति के द्वी । त्रिंशत्कस्य संज्ञिमनुष्ययोदवतुरग्रत्रिशतद्विसहस्रो । एकत्रिंशत्कस्य संज्ञिनि सोद्योतद्वापंचाशदग्रैकादशशती । असंयते एकविंशतिकस्य चतुर्गतिजेष्वेकैको भूत्वा चत्वारः । पंचविंशतिकस्य घर्माना रकवैमाअठासी, मनुष्यके दो सौ अठासी इस प्रकार पाँच सौ चौरासी भंग होते हैं। इस गुणस्थान
सत्ताईस अठाईसके उदयस्थान नहीं होते। क्योंकि शरीरपर्याप्ति आदि कालोंमें एकेन्द्रिय आदि में मिध्यादृष्टिपना ही सम्भव है । उनतीसके देवनारकीके एक-एक मिलकर दो भंग २० हैं। तीसके भाषापर्याप्तिमें संज्ञी तियंचके ग्यारह सौ बावन, मनुष्यके ग्यारह सौ बावन इस तरह तेईस सौ चार भंग हैं। इकतीसके संज्ञीके भाषापर्याप्ति में उद्योत सहित स्थानके ग्यारह सौ बावन भंग हैं ।
मिश्र गुणस्थानमें उनतीसके देवनारकीके भाषापर्याप्ति में एक-एक मिलकर दो भंग हैं। तीसके संज्ञी और मनुष्यके मिलाकर तेईस सौ चार भंग हैं। इकतीसके उद्योत सहित २५ संज्ञके ग्यारह सौ बावन भंग हैं।
असंयत गुणस्थान में इक्कीसके चारों गतिकी अपेक्षा चार भंग हैं। पच्चीसके घर्मानारक और वैमानिक देवके एक-एक मिलकर दो भंग हैं। छब्बीसके भोगभूनि तियंचके छह
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