Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
९.८.
मक्कु व बोर्ड विरोधमादोडमक्कुं । तत्वविचारमितुटेयक्कुं । न भैषज्यमातुरेच्छानुयत्तादो प्रयोगस पडुगुं ॥ नानार्थं समभिरोहणात्समभिरूढः । आउदो दु कारणविदं नानात्थंगळं परिस्यजिसि ओदत्थंमनभिमुखत्वदिदं रूढमदु समभिरूढमवकुं । गौ: एंदितो शब्दं गवाविगलोल वर्त्तमानं पशुविनो रूढमकुं । अथवा अत्यंज्ञप्त्यर्थमागि शब्दप्रयोग मक्कुमल्लिएकाक्केक५ शब्दविवं ज्ञातार्थत्वदर्त्ताणदं पर्य्यायशब्दप्रयोग मनथंक मत्रकुं । शब्दभेद मुंटक्कुमप्पोडत्थं भेव टप्पु दु । मा यत्थं भेर्दाददमवश्यं संभविसल्पडदे दितु नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः एंवितु पेळपट्टुवु । इंदनादिद्रः शकनाच्छक्रः पूर्दारणात्पुरंदरः एंदिती प्रकारविंदं सर्व्वत्रमरियल्पडुगुं । अथवा शब्दमल्लि अभिरूढमदल्लि बंदभिमुखत्वदिदमभिरोहणदत्तणिदमुं समभिरूढमक्कु । में तीगळु क्व भवानास्ते आत्मनि एंवितेके बोडे वस्त्वंतरदोळ वृत्यभावमप्पुवरिवं । पितल्लवेत्तलानुमन्यक्क१० न्यत्रवृत्तियक्कुमप्पोर्ड ज्ञानादिगळ रूपादिगळग मुमाकाशदो वृत्तियक्कु ॥
किन्तु इससे लोक और शास्त्रका विरोध होनेका भय नहीं करना चाहिए। यह तत्त्व विचार है । औषधि रोगीकी इच्छा के अनुसार नहीं दी जाती। नाना अर्थोंका समभिरोहण करने से समभिरूढ़ नय है - अर्थात् नाना अर्थोंको त्यागकर एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने वाला समभिरूढ़ नय है, जैसे गौ शब्द गाय आदि अर्थों में वर्तमान रहते हुए भी पशुओंके १५ अर्थ में रूढ है । अथवा अर्थका ज्ञाता ज्ञाप्य अर्थके अनुरूप शब्दका प्रयोग करता है । एक अर्थका बोध एक शब्दसे होनेपर पर्याय शब्दका प्रयोग व्यर्थ है । यदि शब्द भिन्न है तो अर्थ में भी भेद होना ही चाहिए। इस प्रकार नाना शब्दोंके नाना अर्थ माननेवाला समभिरूढ है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर तीन शब्द एकार्थवाचक माने जाते हैं किन्तु उनके अर्थ भिन्न हैं । इन्दन करने से इन्द्र, शक्तिशाली होनेसे शक्र और नगरोंको दारण करनेसे पुरन्दर कहा २० जाता है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना । अथवा जो जहाँ अधिरूढ़ है वह मुख्य रूपसे वहीं
अधिरूढ़ है । जैसे इस समय आप कहाँ स्थित हैं ? उत्तर है-आत्मामें । क्योंकि एक वस्तु दूसरी वस्तुमें नहीं रहती। यदि ऐसा न हो तो जीवके ज्ञानादि और पुद्गलके रूपादि आकाश में रहने लगें ।
कालव्यभिचारः । संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमते उपरमति इत्ययं प्रग्रहव्यभिचारः । एवंप्रकारः शब्दनयन्यायः २५ ( ? ) । कुतः ? मन्यार्थस्यान्यार्थेनासंबंधात् । एवं चेदयं नयः लोकसमयविरोधः इति न वाच्यं तत्त्वविचार एवं
स्यात् भैषज्यमातुरेच्छानुवति न तथापि प्रयोक्तव्यम् ।
नानार्थ समभिरोहणात्समभिरूढः । यतः कारणात् नानार्थान् हि परित्यज्यैकार्थमभिमुखत्वेन रूढः । गौ इति शब्दः गवादिषु वर्तमानः पशुषु रूढः । अथवा अर्थज्ञ: ज्ञाप्यार्थानुरूपं शब्दं प्रयुक्ते तत्रैकार्थस्यैकशब्देन ज्ञातत्वात् पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थकः । शब्दभेदोऽस्ति चेदर्थभेदो भवेत्तेनार्थभेदेनावश्यं न संभवतीति नानार्थ३० समभिरोहणात्समाभिरूढः, इंदनानिद्रः, शक नाच्छक्रः, पूर्वारणात्पुरंदरः इत्येवंप्रकारेण सर्वत्र ज्ञातव्यं । अथवा यः शब्दो यत्राभिरूढः स तत्रागत्याभिमुखत्वे नाभिरोहणात्समभिरूढः । इदानीं वव भवानास्ते ? आत्मनि, वस्त्वंतरे वृत्यभावात् । अभ्यथा ज्ञानादोनां रूपादीनां चाकाशे वृत्तिः स्यात् ।
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