Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
शून्यमक्कुं । देवगतियुतबंधंगळु
८
८
२८ २९ ई देशसंयतन देवगतियुतबंध द्विस्थानंगळ भंगंगळु प्रमत्तसंयतंगमा देशसंयतनंते नरकगत्यादि गतित्रययुतबंधस्थानंग शून्यमक्कुं । देवगतितबंधस्थानंगळ २८ २९ ई प्रमत्त देवगतियुत द्विस्थानभंगंगळमसंयतन बंधस्थानंगळोळु
८ ८
संभव कारणमागिवासासादन बंधस्थानंगळ भंगंगळ मनी मिश्र देश संयतत्रमत्तरुगळ बंधस्थानभंगळमं कदु मिथ्यादृष्टिय असंयतन प्रमादरहितर बंधस्थानंगळोळ भुजाकारादि चतुब्बंध- ५ स्थानंगको भंगंगळवे बुदत्यं ॥
आ भुजाकारादिबंधंगळ स्वस्थानपरस्थान सर्व्वपरस्थानंगळोळ संभविमुगुमेंदु पेळदपरु :भुजगारा अप्पदरा अवट्ठिदावि य सभंगसंजुत्ता । सव्वपराणेण य णेदव्वा ठाणबंधम्मि || ५५४ ॥
भुजाकारा अल्पतरा अवस्थिता अपि च स्वभंगसंयुक्ताः । सर्व्वपरस्थानेन च नेतव्याः १० स्थानबंधे ॥
९०१
भुजाकारबंधंगळ अल्पतरबंधंगळ अवस्थितबंधंगळ चशब्ददिदमवक्तव्य बंधं गळु स्वस्वभंगसंयुक्तंगळागिये नामस्थानबंधदो स्वस्थानबंधदोडनेयुं परस्थानबंधदोडनेयं सर्व्वपरस्थानबंधदोडनेयुं नडेसल्पडुववु ॥
स्वस्थानपरस्थान सर्व्वपरस्थानं गळे 'बुर्व र्त दोडे पेळदपरु
--
२८ | मिश्रा संयतयोर्न च नरकतिर्यग्गतियुतानि । मिश्रस्य मनुष्य २९ देवगतियुते २८ असंयतस्य मनुष्य
८
८
८
२९ ३० देव २८ २९ गतियुतानि । देशसंयतस्य प्रमत्तस्य च केवलदेवगतियुते २८ २९ ॥५५२-५५३॥
८८
८ ८
८८
तद्धा भुजाकारा अल्पतरा अवस्थिताः, चशब्दादवक्तव्याश्चेति चत्वारः, स्वस्वभंगसंयुक्ता नामस्थानबंधविषये स्वस्थानेन परस्थानेन सर्वपरस्थानेन च सह नेतव्याः || ५५४ ॥ तानि स्वस्थानादीनि लक्षयति-
Jain Education International
हैं। मिश्र और असंयत में नरकगति और तिर्यञ्चगति सहित स्थान नहीं हैं। मिश्र में मनुष्य- २० गति सहित उनतीस और देवगति सहित अठाईसके आठ-आठ भंग हैं। असंयंत में मनुष्यगति सहित उनतीस, तीस और देवगति सहित अठाईस, उनतीसके आठ-आठ भंग हैं। देशसंयत और प्रमत्त में केवल देवगति सहित अठाईस, उनतीसके आठ-आठ भंग हैं ।। ५५२-५५३ ।।
विशेष - पं. टोडरमलजीने अपनी टीका में मिश्र में मनुष्यगतियुत् उनतीसके तथा असंयत में मनुष्ययुत् उनतीस-तीसके और देवगतियुत् अठाईस - उनतोसके चार-चार भंग २५ लिखे हैं । और देवगतियुत् अठाईस, उनतीस, उनतीस, तीस इन चारोंके आठ-आठ भंग लिखे हैं । कलकत्ता से मुद्रित संस्करण में इसपर टिप्पणी भी है कि कुछ पाठ संस्कृत टीकाके पाठसे अधिक प्रतीत होता है ।
१५
पूर्वोक्त बन्धके भुजकार अल्पतर अवस्थित और 'च' शब्दसे अवक्तव्य इस तरह चार प्रकार हैं। अपने-अपने भंगोंसे संयुक्त नामकर्मके बन्धस्थानों में स्वस्थान, परस्थान ३० और सर्वपरस्थानके साथ लाने चाहिए ।। ५५४।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org