Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
तित्थयरसत्तणारयमिच्छ णरऊण तीसबंधो जो ।
सम्मम्म तीसबंध तियछक्कडछक्कच उभंगा ||५७४ ॥
तीत्थंकरसत्त्व नारक मिथ्यादृष्टिर्न रैकान्नत्रिंशदुबंधको यः । सम्यग्दृष्टिः त्रिशत्प्रकृतिबंधक त्रिकटुकाष्टषट्कचतुब्भंगाः ||
यः आवनानोव्वं तीर्थंकरसत्वनारक मिथ्यादृष्टि जीवन्नन्नेवरं शरीरपर्य्याप्तिरहित नन्नेवरमष्टोत्तरषट्चत्वारिंशच्छतभंगयुत नर नवविंशति प्रकृतिस्थानबंधक नवकुमातं शरीरपर्थ्याप्तियिवं मेले सम्यक्त्व स्वीकार मागुत्तं विरल तीत्थंयुतमनुष्यत्रिशत्प्रकृतिस्थानबंधक नक्कुमल्लि । भुजाकार भंगळु चतुःषष्टयुत्तराष्टशतयुत षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमितंगळप्पुवु । ३६८६४ ।। १२८ कूडि असंयतन भुजाकार भंगंगळ पूर्वोक्त त्रिक षट्क नव नव द्वि प्रमितंगळप्पुवु । ३६९९२ ॥ अनंतरमसंयतंगल्पतर बंधभंगंगळं पेदपरु :
बावर अप्पदरा देउगुतीसा दु णिरय अडवीसं । बंधंत मिच्छुभंगणवगयतित्था हु पुणरुत्ता ||५७५ ।।
द्वासप्ततिरल्पतरा वेवैकान्नत्रिंशत्प्रकृतेस्तु नारकाष्टाविंशति । बध्नतो मिथ्यात्व भंगेनापगततीर्थाः खलु पुनरुक्ताः ॥
प्राग्बद्ध नरकायुर्मनुष्यासंयतं तीर्थंकर देवगतियुतनर्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमं कट्टुत्तं नरकगतिगमनाभिमुखं मिथ्यात्व कम्र्मोदर्यादिदमंत म्हत्तं कालपर्यंतं मनुष्यमिध्यादृष्टियागि नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थान बंधमं माडुतमितंगे अष्टभंगंगळप्पुवा अष्टभंगसहितमागि मत्तं
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यस्तीर्थं सत्त्वनारकमिध्यादृष्टिः यावदपूर्णशरीरस्तावदष्टाग्रषट्चत्वारिंशच्छतषान रनवविंशतिक बन्धकः स शरीरपर्याप्तेरुपरि सम्यक्त्वं प्राप्य तीर्थंयुतमनुष्यत्रिशत्कं बघ्नाति तदा चतुःषष्टयग्राष्टशतषट्त्रिंशत्सहस्री ३६८६४ मिलित्वा संयत भुजाकारभंगास्तावन्तो भवन्ति । ३६९९२ ॥ ५७४॥ अथासंयतस्याल्पतरबन्धभंगानाह -
प्राग्वद्धनरकायुर्मनुष्यासंयतः तीर्थबन्धं प्रारभ्य तीर्थंकरदेवगतिनवविंशतिकं बध्नन्, नरकगतिगमनाभिमुखोऽन्तर्मुहूतं मनुष्य मिथ्यादृष्टिः सन् नरकगत्यष्टाविंशतिकं बध्नाति तदाष्टो । पुनः देवो नारको वाऽसंयतः
आगे असंयत में अल्पतर कहते हैं
जिसने पहले नरकायुका बन्ध किया है ऐसा असंयत मनुष्य तीर्थंकरके बन्धका प्रारम्भ करके तीर्थंकर और देवगति सहित उनतीसको बाँधता है। उसके आठ भंग हैं। पीछे
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तीर्थंकरको सत्तावाला नारकी मिध्यादृष्टी अपर्याप्त अवस्था में छियालीस सौ आठ भंगके साथ मनुष्यगति सहित उनतीसको बाँधता है । पीछे शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेपर २५ सम्यक्त्वको पाकर तीर्थंकर और मनुष्यगति सहित तीसको बाँधता है । तब उसके आठ भंगोंसे पूर्वके छियालीस सौ आठ भंगोंको गुणा करनेपर छत्तीस हजार आठ सौ चौंसठ भंग ३६८६४ होते हैं । इनमें पूर्वोक्त एक सौ अठाईसको मिलानेपर छत्तीस हजार नौ सौ नवे असंयत में भुजाकार भंग होते हैं || ५७४ ||
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