Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिका
ज्ञानिमिथ्यादृष्टिसासादनरुगळु संज्ञिपंचेंद्रियपर्थ्याप्ततिर्य्यग्गतियुत नवविंशतिस्थानमुमं त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुद्योततमं मनुष्यगतियुत नर्वावशति प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवर । मेलान ताविकल्पजरोळं नवग्रैवेयकंगळोळं कुमतिकुश्रुतविभंग ज्ञानिमिध्यादृष्टिसासादनरुगळु मनुष्यगतियुत नववंशतिप्रकृतिस्थानमा दने कट्टुवरेक' दोडे तदो णत्यि सदरचऊ एंब नियममुंटत्युर्वारदं ॥
सणाणे चरिमपणं केवलजहखादसंजमे सुण्णं ।
सुदमिव संजमतिदये परिहारे णत्थि चरिमपदं ॥ ५४७ ||
संज्ञाने चरमपंच केवलयथाख्यात संयमे शून्यं । श्रुतमिव संयमत्रितये परिहारे नास्ति चरमपदं ॥
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मतिश्रुतावधिमनःपय सत् ज्ञानचतुष्टयदोळु त्रयोविंशति षड्वशति प्रकृतिनामकम्मंबंधस्थानंगळ कळेदु शेषाष्टाविंशत्यादि पंचस्थानंगळ बंधयोग्यंगळप्पुवु । म । श्रु । अ । म । २८ । १० २९ । ३० । ३१ । १ । मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयंगळु नारकरोळं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततिय्यं चरोळं मनुष्यपर्याप्त रोळं भवनत्रयादि सव्वार्थसिद्धि पर्यवसानमाद देवर्कळोळमप्पुवल्लि सप्तपृथ्विगळ नारकासंयत सम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतियुतनर्वाविंशतिस्थानमं कटुवर मेघे पय्र्यंतमाद मूरुं पृथ्विगळ असंयतसम्यग्दृष्टिगळु मनुष्यगतितीत्थंयुत त्रिशत्प्रकृतिस्थानमुमं कट्टुवर । सौधर्मादिदेवक्कंळु गळा मनुष्यगतियुतनर्वाविंशति प्रकृतिस्थानमुमं तो थंमनुष्यगतियुत त्रिंशत्प्रकृति- १५ स्थानमुमं कट्टुवरु । भवनत्रयत्रिज्ञानिगळ मनुष्यगतियुत नववंशतिस्थानमों दने कट्टुवरु |
तनवविंशतिकानि । सानत्कुमारादिसहस्रारांते संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततियंग्मनुष्य गतियुतनर्वाविंशतिकोद्योतयुतत्रिशतके द्वे । आनतादिनवग्रैवेयके मनुष्यगतियुतनर्वाविंशतिकमेव 'तदो णत्थि सदरचऊ' इति नियमात् ॥ ५४६ ॥ मतिश्रुतावषिमन:पर्ययज्ञानेष्वष्टाविंशतिकादीनि पंच त्रयोविंशतिकपंचविंशतिषवैिशतिकाभावात्, मतिज्ञानादित्रयं पर्याप्तापर्याप्तनारकसंज्ञितियंग्मनुष्यदेवेषु । तत्र नारके मनुष्यगतियुत नवविंशतिकमाद्य पृथ्वीत्रये २० तु मनुष्यगतितीर्थ युतत्रिशत्कमपि, सौधर्मादिदेवे ते एव द्वे, भवनत्रये मनुष्यगतियुतनवविंशतिकमेव, तिरश्चि मनुष्यगति सहित उनतीस ये पांच स्थान हैं । सानत्कुमारसे सहस्रार पर्यन्त संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिथंच और मनुष्यगति सहित उनतीस, तथा उद्योत सहित तीस ये दो स्थान हैं । आनतादि नौ ग्रैवेयक पर्यन्त मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान है; क्योंकि 'तदोत्थ सदरचऊ' इस वचनके अनुसार वहाँ तियंचगति सहित स्थान नहीं होता ।। ५४६ ||
ति श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञानमें अठाईस आदि पाँच स्थान हैं, उनमें तेईस, - पच्चीस और छब्बीसके स्थान नहीं होते ।
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मतिज्ञान आदि तीन पर्याप्त अपर्याप्त नारकी, संज्ञीतियंच तथा मनुष्यों और देवों में 1 होते हैं । उनमें से नारकियोंमें मनुष्यगति सहित उनतीसका स्थान होता है । प्रथम तीन नरकों में मनुष्यगति तीर्थंकर सहित तीस भी होता है । सौधर्म आदिके देवोंमें भी वे ही दो ३० स्थान होते हैं । भवनत्रिक में मनुष्यगति सहित उनतीसका ही स्थान होता है । तियंचमें देवगति सहित अठाईसका स्थान होता है। मनुष्य में देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस ये दो स्थान होते हैं ।
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