Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
८७३ पर्याप्तदिविजरोळल्लं पद्मलेश्ययेयककुमप्पुरिदं । तत्रत्य नित्यपर्याप्त मिथ्यादृष्टिजीवंगलोळु पूर्वोक्तचरकादि पालेश्यामिथ्यादृष्टिगळे कर्मभूमितिय॑ग्मनुष्यपद्मलेश्याजीवंगळे बद्धदेवायुष्यम्म॒तरागि बंदु पुटुवरु। पुटि तिर्यग्गतिमनुष्यगतियुतद्विस्थानंगळ कटुवरु । २९ ति । म । ३० । ति । उ । तत्रत्यसासादनरुगळुमाद्विस्थानंगळने कटुवरु । २९ । ति । म। ३०॥ ति उ॥ तत्रत्यासंयतनिर्वृत्यपर्याप्तरुगळं स्वयोग्यनवविंशत्यादि द्विस्थानंगळं कटुवरु । २९ । ५ म। ३० । म ति ॥ शतारेंद्रकं मोदल्गोंडु प्रीतिकरविमानावसानमाद पविनय्यदुं पटलंगळ चतुष्कल्पजरुगळं नवनवेयकसमुद्भूतरुगळप्पहमिद्ररुगळं शुक्ललेश्यरुगळेयप्पुरदं मिथ्यावृष्टिगळु मनुष्यगतियुतनविंशतिप्रकृतिस्थाननोंदने कटुवरु । २९ । म। तत्रत्य सासावनरुगळ मा स्थानमनोंदने कटुवरु । २९ । म। तत्रत्यासंयतसम्यग्दृष्टिगळं मनुष्यगतियुतनवविंशतिस्थानमुमं नोत्थं मनुष्यगतियुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थामुम कटुवरु। २९ । म। ३० । म ती॥ आदित्येंद्रकं मोदलगोंडु सर्वार्थसिद्धिपय्यंतमाद दिविजरोळेल्लग्गं शुक्ललेश्ययेयक्कुमसंयतसम्यग्दृष्टिगळेयप्परवगळोल नवविंशत्यादि द्विस्थानंगळु बंधमपुवु । २९ । म । ३० । म ति ॥ इल्लिगे प्रस्तुतगाथासूत्रंगळ -
'णरतिरिय देस अयदा उक्कस्सेणच्चुदोत्ति णिग्गंथा। गर अयददेसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥ सम्वट्ठोंत्ति सुविट्ठी महत्वई भोगभूमिजा सम्मा। सोहम्मदुर्ग मिच्छा भवणतियं तावसा य वरं ॥
भूमितिर्यग्मनुष्या बद्ध देवायुषः पपलेश्ययोत्पद्यते। तम्भिध्यादष्टिसासादनाः तियंग्मनुष्यगतियुते द्वे २९ ति म ३० ति उ । असंयताः स्वयोग्ये द्वे २९ म ३० मती। आनतादिचतःकल्पनववेयकशुक्ललेश्यामिथ्यादृष्टिसासादनाः मनुष्यगतिनवविंशतिकं । तदसंयताः नवानुदिशपंचानुत्तरशुक्ललेश्यासंयताश्च तच्च तीर्थमनुष्यगति त्रिंशत्कं च । अत्र प्रस्तुतगाथा
णरतिरिय देसअयदा उक्कस्सेणच्चदोत्ति णिग्गंथा। णर अयददेसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥५४५।।
सम्यग्दृष्टि मनुष्यगति सहित उनतीस और मनुष्यगति तीर्थकर सहित तीसका बन्ध करते हैं। ऊपरके आठ कल्पोंमें जिन्होंने देवायुका बन्ध किया है ऐसे चरक आदि कर्मभूमिया तियंच मनुष्य पद्मलेश्याके साथ उत्पन्न होते हैं। वे मिथ्यादृष्टि और सासादन तिथंच या २५ मनुष्यगति सहित उनतीस-तीसका बन्ध करते हैं। और असंयत मनुष्यगति सहित उनतीस या मनुष्यगति तीर्थ सहित तीस का बन्ध करते हैं। आनत आदि चार कल्प, और नौ अवेयकोंमें शुक्ललेश्या है। वहां मिथ्यादृष्टि और सासादन मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध करते हैं। तथा वहांके असंयत और नौ अनुदिश पाँच अनुत्तरवासो असंयत मनुष्यगति सहित उनतीस और मनुष्यगति तीर्थ सहित तीसको बाँधते हैं। यहाँ प्रासंगिक गाथा ३० कहते हैं
देशवती और असंयत मनुष्य तथा तिर्यश्च उत्कृष्ट से अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं। द्रव्यसे निर्ग्रन्थ और भावसे असंयत, देशसंयत या मिथ्यादृष्टि अवेयक पर्यन्त उत्पन्न
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