Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
८८४
गो० कर्मकाण्डे
दंसणमोहक्खवणा पट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुजो। तित्थयरपादमूळे केवळिसुदकेवळीमूळे ।। णिट्ठवगो तहाणे विमाण भोगावणीसु घम्मे य ।
कदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ।।-लब्धि. ५१०-१११ गा. एंदिती सामग्रीविशेषयुतप्रस्थापक मनुष्यासंयतदेशसंयतप्रमत्ताप्रमत्तचतुर्गुणस्थानत्तिगर्छ मुंनमनंतानुबंधिकषायमं विसंयोजिसुवल्लि उदयावलिबाह्योपरितनस्थितियोळिर्द निषेकंगळेल्लमनपर्षिसि विसंयोजिसुत्तमनिवृत्तिकरणचरमसमयदोळु निरवशेषमागि विसंयोजिसुगुं। द्वादशकषाय नव नोकषायस्वरूपदिदं परिणमनमप्पंतु माळकुम बुदत्थं । इंतप्प विसंयोजनमं वेदकसम्यग्दृष्टि असंयतनुं देशसंयतनुं प्रमत्तसंयतनुमप्रमत्तसंयतनुमघःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयं मोदल्गोंडु प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्धियिदं वर्द्धमानरागुत्तं सातादिप्रशस्तप्रकृतिगळगे प्रति. समयमनंतगुणवृद्धियि चतुःस्थानानुभागबंधमनसाताद्यप्रशस्तप्रकृतिगळ्गे प्रतिसमयमनंतगुणहानिय
आरोहणेपूर्वकरणप्रथमभागादन्यत्रावतरणे सर्वत्र क्वचिद्यदि म्रियते तदा वैमानिकेषु यथासंभवं निवृत्त्यपर्याप्तो भूत्वा मनुष्यगतिनवविंशतिकादिद्वयं बध्नाति २९ म ३० म ती। उभयोपशमसम्यक्त्वे एकत्रिशकसत्त्वप्रमत्ते
मिथ्यात्वं तीर्थसत्त्वाहारकसत्त्वासंयतादिश्येऽनंतानुबंधी तीर्थसत्त्वे मिश्रं च नोदेति, तत्तत्कर्मसत्त्वजीवानां १५ तत्तद्गुणस्थानस्य संभवाभावात् ।
दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुजो। तित्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥
णिट्ठवगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । कदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ॥ देवायका बन्ध किया है तो वह चढ़ते अपूर्वकरणके प्रथम भाग बिना अन्यत्र और उतरते
गर्वत्र यदि कहीं मरण करता है तो यथासम्भव वैमानिक देव होता है। वहाँ निवृत्यपर्याप्त २. अवस्था में मनुष्यगति सहित उनतीस और तीसका बन्ध करता है।
दोनों ही प्रकार के उपशम सम्यक्त्वमें इकतीस प्रकृतिरूप नामकर्मके बन्धस्थानका सत्त्ववाला प्रमत्तगणस्थानवर्ती प्रमत्तसे मिथ्यात्वमें नहीं आता। तीर्थकर और आहारककी सत्तावाले असंयत आदि तीनमें अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं होता। अतः वे उन गणस्थानों
से च्युत होकर सासादनमें नहीं आते। तथा तीर्थंकरके सत्त्वमें मिश्र मोहनीयका उदय २५ नहीं होता। अतः वह तीसरे गुणस्थानमें नहीं आता। क्योंकि उस उस कर्मकी सत्तावाले
जीवोंक वह वह गुणस्थान नहीं होता। - विशेष.थ-एक जीवके तीर्थंकर और आहारकका सत्त्व होनेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नहीं होता। आहारकका सत्त्व होते सासादन गुणस्थान नहीं होता और तीर्थंकरका सत्त्व होते मिश्रगुणस्थान नहीं होता।
अब क्षायिक सम्यक्त्वमें कहते हैं। यहां प्रासंगिक कहते हैं
"दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ तो कर्मभूमिया मनुष्य तीर्थंकर केवली या श्रुतकेवलीके पादमूलमें करता है। और निष्ठापक वहीं, या वैमानिक देवोंमें या भोगभूमिमें या प्रथम नरकमें होता है क्योंकि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी चारों गतिमें जन्म लेता है।" वही कहते हैं
३.
३५ १. प्रारंभक इत्यर्थः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org