Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८८७ सहस्रगलिदं कुंदि चतुरिद्रियजीवस्थितिबंधसमानशतसागरोपमस्थितिसत्वमकुमल्लिदं मेलेयु पल्यासंख्यातेकभागायामस्थितिकांडक सहस्रायामंगळिंदं कुंदित्रोंद्रियजीवस्थितिबंध समान पंचाशत् सागरोपमप्रमितस्थितिसत्वमक्कुल्लिदं मेलयु पल्यासंख्यातेकभागायामस्थितिकांडकसहस्रगळिवं कुंदि द्वौद्रियजीवस्थितिबंधसमानपंचविंशतिसागरोपमस्थितिसत्वमक्कुल्लिदं मेले यु पल्यासंख्यातैकभागायामस्थितिकांडकसहस्रगळिदं कुंदि एकेंद्रियजीवस्थितिबंधतमानैकसागरोपमस्थितिसत्वमक्कुमल्लिदं मेलेयुं तावन्मात्रायामसंख्यातसहस्रस्थितिकांडकंगळिदं कुंदि पल्यप्रमितस्थितिसत्वमक्कुमो द्वितीयपर्वपल्यप्रमितस्थितिसत्वदिदं मेले पल्यासंख्यातेकभागमात्रदूरापकृष्टिस्थितिपयंतं पल्यासंख्यातबहुभागायामस्थितिकांडकसहस्रंगळिवं कुंदि दूरापकृष्टि येब तृतीयपर्वस्थितिमितपल्यासंख्यातेकभागमात्रस्थितिसत्वमक्कुमल्लिदं मेले उच्छिष्टावलिपय्यंत पल्यासंख्यातबहभागायामस्थितिकांडकंगळु संख्यातसहस्रंगळिवं कुंवि १० अनंतानुबंधिस्थितिसत्वमावलिप्रमितमक्कुमिदुच्छिष्टावलिये बुदक्कुमिवक्के सरेंतपकुम दोडा. तत उपरि तदायामैस्तावद्धिस्तीनं पल्यमात्र । ( अत उपरि पल्यमात्र) अत उपरि पल्यासंख्यातबहभागायामैस्तावद्भिस्तैहीनं दुरापकृष्टिसंज्ञं पल्यासंख्यातकभागमा । तत उपर्येतदायामस्तावद्भि-नमुच्छिष्टावलिसंज्ञमावलिमात्र । एतावस्थिताववशिष्टायां विसंयोजनोपशमनक्षपणाक्रिया नेतोदमच्छिष्टावलिनाम । ते निषेकाः आवलिकाले परप्रकृतिरूपेण भूत्वा गलंति इत्येवं तच्चतुष्क तच्चरमसमये सर्व विसंयोजितं द्वादशकषायनवनोकषायरूपं १५ नीतं।
अंतो मुहुत्तकालं विस्सभिय पुणोवि तिकरणं करिय ।
अणयट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेई ।। तदनंतरमंतर्मुहतं विश्रम्यानंतानुबंधिचतुष्कं विसंयोज्यांतर्मुहूर्तानंतरं करणत्रयं कृत्वानिवृत्तिकरणकाले संख्यातबहुभागे गते शेषैकभागे मिथ्यात्वं ततः सम्यग्मिध्यात्वं ततः सम्यक्त्वप्रकृति च क्रमेण क्षपयति, दर्शन- २० एक सागरकी स्थिति रहती है । उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके घटानेपर पल्यप्रमाण स्थिति रहती है । उसके ऊपर पल्यके असंख्यात भागमें-से एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके द्वारा स्थितिको घटानेपर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति रहती है उसे दूरापकृष्टि कहते हैं। उसके ऊपर उतने ही आयामको लिये उतने ही काण्डकोंके द्वारा आवली प्रमाण स्थिति रहती है । उसे ही उद्दिष्टा- २५ वली कहते हैं; क्योंकि उतनी स्थिति शेष रहनेपर विसंयोजन या उपशमन या क्षपणा क्रिया नहीं हो सकती। ये शेष रहे आवलीकालके निषेक उस आवलीकालमें एक-एक निषेक रूपसे अन्य प्रकृति रूप परिणमन करके गल जाते हैं। इस प्रकार अनन्तानुवन्धीचतुष्क उस उच्दिष्टावलीके अन्तिम समयमें विसंयोजनरूप होकर अन्य बारह कषाय और नव नोकषाय रूप हो जाता है।
उसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम लेता है। अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के बाद एक अन्तर्मुहूत बीतनेपर पुनः तीन करण करता है। उनमें से अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात भागोंमें-से बहुभाग बीतकर एक भाग शेष रहनेपर पहले मिथ्यात्वका, फिर सम्यग्मिथ्यात्वका, फिर सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करता है । दर्शनभोहकी क्षपणाके प्रारम्भके प्रथम समयसे लेकर सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथम स्थितिके कालमें अन्तमुहूर्त शेष रहने तक तो ..
क-११२
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