Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
८३७
विकलत्रयस+जीवंगळोळं बंधयोग्यमन्तप्पुरिदं। तेजोवायुकायिकबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तजोवंगळु मनुष्यगत्यपर्याप्तपंचविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टरु। पर्याप्तमनुष्यगतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमं कट्टरु । कारणमेने दोडे "मणुवदुगं मणुवाऊ उच्च ण हि तेउवाउम्मि" एंदितु जिनदृष्टमप्पुरिदं । शेषमिथ्यादृष्टयसंयमितिय्यंचरुगळु तिर्यग्गति मनुष्यगतियुतमागि यथायोग्य षट्स्थानंगळं कटुवरु। तिय्यंचसासादनासंयमिगळु नियमदिवं संजिपंचेंद्रिय पर्याप्ततियंच नेयक्कुमा जीवं प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकरिसि असंयतनक्कुमथवा देशव्रतमुमं प्रथमोपशम सम्यक्त्वमुमं युगपत्स्वीकरिसि देशवतियक्कुमागियुमा ईटरुमनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सासावननक्कुमा जीवनोळ तियेग्गतियुत नवविंशतिप्रकृतिस्थानमुमुद्योतयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं मनुष्यगतियुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं बंधमप्पुवु। मी सासादनासंयमिजोवंग मरणमादोर्ड नरकगतिवज्जितमागि शेषतिय॑ग्गतियोळं मनुष्यगतियोळं देवातियोळं १० सासादनासंयमियुत्कृष्टदिदं समयोनषडावलिकालपथ्यंतमुं जघन्यदिमेकसमयं सासादनासंयमिगळप्परल्लि तिय्यंचसासादनरप्पोडे 'ण हि सासणो अपुण्णे साहारण सुहुमगेसु तेउदुर्ग में दितिनितुं स्थानंगळोळु पुटुवरल्लं। शेषैकेंद्रियविकलत्रयपंचेंद्रियसंस्यसंज्ञिजीवंगळोन्मुटुj-। मलि एकेद्रियविकलत्रय पंचेंद्रियसंज्यसंज्ञिजीवंगळोळु पुट्टिदसासादननुं नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमं कटुवनल्लं। शरीरपर्याप्ति नेरेयद मुन्नमा सासादनत्वं पोगि नियमदि मिथ्या- १५ दृष्टियेयक्कु । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्तियिदं मेलल्लदे नरकगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल। विगले' इति तेषु तदबंधात् । नापि बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ततेजोवायुषु मनुष्यगत्यपर्याप्तयुतपंचविंशतिकपर्याप्तमनुष्यगतियुतनवविंशतिके 'मणुवदुगं मणुवाऊ उच्च णहि तेउ वाउम्मीति तेषु तबंधनिषेधात् । प्रथमो. पशमसम्यक्त्वं तद्युतदेशव्रतं वा विराध्य जातसासादनस्तिर्य तिर्यग्गतियुतमनुष्यगतियुतनवविंशतिकोद्योतयुत- २० त्रिंशत्कदेवगतियुताष्टाविंशतिकानि बध्नाति । मरणे नरकवजितगतिषत्कृष्टेन समयोनषडावलिकालं जघन्येनैकसमयं सासादनस्तिर्य तदा णहि सासणो अपुण्णे साहारणसुहमगे य तेउदुगे' इति शेष केंद्रियविकलत्रयसंश्यसंश्येव नरकगतिदेवगतियुताष्टाविंशतिकमबध्नन् शरीरपर्याप्तः प्राक् सासादनत्वं त्यक्त्वा नियमेन मिथ्याष्टिपंचेन्द्रियमें नरकगति, देवगति सहित अट्ठाईसका स्थान नहीं है, क्योंकि 'पुण्णिदरं विगिविगले' के अनुसार वहाँ उसका बन्ध नहीं होता। तथा बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त- २५ तेजकाय, वायुकायमें मनुष्यगति अपर्याप्त सहित पच्चीसका और पर्याप्त मनुष्यगति सहित उनतीसका बन्ध नहीं होता। क्योंकि उनमें उनके बन्धका निषेध है।
प्रथमोपशम सम्यक्त्व और उससे युक्त देशव्रतकी विराधना करके सासादन हुआ तिर्यच, तियेचगति या मनुष्यगति सहित उनतीस और उद्योत सहित तीसका तथा देवगति सहित अठाईसका बन्ध करता है। मरण होनेपर नरकगतिके बिना अन्य गतियों में उत्कृष्टसे ३० एक समय हीन छह आवली और जघन्यसे एक समय पर्यन्त अपर्याप्तदशामें सासादन होता है। अतः सासादन तिर्यंच 'ण हि सासणो अपण्णे साहारणसहमगे य तेउदगे इस वचनके अनुसार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी जीव ही अपर्याप्त सासादन होता है। सो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org