Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
मिथ्यात्वमं पत्तुविट्टु नियर्मादिदं सम्यग्दृष्टिगळागि तीरथं युतस्थानमनोंदने कट्टुवरु । ३० । म ती । तिग्गतियोऴ ॥ " णरतिरियाणं ओघो यिगिविगळे तिष्णि चउ असण्णिस्स । सपिण अपुण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि असुहतियं ॥" तिरियंचरोळु षड्लेश्येगळवादोडमेकेंद्रिय भेदंगळोळं विकलत्रयंगळोळेला लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त पर्याप्तरोळ मशुभलेश्यात्रय५ मक्कुं । संयपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळोळं नरकगत्यादिगबिंदु पुट्टिद सासादनरोळ मशुभलेश्यात्रयमेयक्कुं । अपर्थ्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तासंयतरोळं पर्याप्तसासादनरोळं षड्लेश्येगळप्पु । असंज्ञिपंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तनिवृत्यपर्य्याप्तजीवंगळोळमशुभलेश्यात्रितयमेयक्कुं । पर्याप्तासंज्ञिमिथ्यादृष्टियोळ कृष्णादि चतुर्लेश्येगळपुवु ।
भोगा पुण्णग सम्मे काउस्स जहण्णयं हवे णियमा । सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिणि सुहलेस्सा ॥ एंदितु भोगभूमिनिष्व त्यपर्याप्तासंयत सम्यादृष्टिगळोळ. कपोत लेश्या जघन्यमेयक्कुं । नियमदिदं । मत्तमा भोगभूमिजमिथ्यादृष्टिगळोळ मेणु- सम्यग्दृष्टिगळोळ शरीर पर्याप्त परिपूर्णमागुत्तं विरलेला जीवंगळं तेजः पद्मशुक्लंगळे व शुभलेश्यात्रयमेयक्कु । मिल्लि एकान्नविशतिविधतिध्यंचलब्ध्यपर्य्याप्तरोपुटुव जीवंगळवावुर्वि दोडे पृथ्व्यप्तेजोवायुनित्य चतुर्गति१५ निगोदबादर सूक्ष्मजीवंगळु प्रतिष्ठितप्रत्येक अप्रतिष्ठितप्रत्येक द्वोंद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रिया संज्ञि संज्ञि लब्ध्यपर्याप्त पर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळं मनुष्यलब्ध्यपर्थ्याप्तपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळु मितु
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नियमेन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा तस्त्रिशत्कमेव । तिर्यग्गतो पर्याप्तादित्रिविध सर्वेक द्वित्रिचतुरिद्रियेषु लब्ध्यपर्याप्त निर्वृत्त्य पर्याप्त संज्ञिनि मिथ्यादृष्टिनरकाद्यागत सासादनापर्याप्त संज्ञिनि च लेश्या अशुभा एव तिस्रः । पर्याप्त मिथ्यादृष्टयसंज्ञिनि कृष्णाद्याश्चतस्रः । पर्याप्त सासादन मिश्र पर्याप्तापर्याप्तासंयत संज्ञिनि षट् भोगभूमी २० निर्वृत्यपर्याप्ता संयते कापोतजघन्यं । मिथ्यादृष्टी सम्यग्दृष्टौ वा तत्पर्याप्ते शुभा एव तिस्रः । तत्रत्यानां शरीरपपूर्णाय तत्त्रये एवागमनात् । एषामुक्ततिर्यग्जीवानां मध्ये ये बादर सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदप्रतिष्ठिता प्रतिष्ठित प्रत्येक द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञि पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तास्ते च तेभ्यो वा तदेकान्नविंशतिविधपर्याप्तेभ्यो वा
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तिर्यंचगति में पर्याप्त आदि तीन प्रकारके सब एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रियोंमें तथा लब्ध्यपर्याप्त निवृत्यपर्याप्त असंज्ञीमें, नरकसे आये मिध्यादृष्टियोंमें और सासादन अपर्याप्त संज्ञी में तीन अशुभलेश्या ही होती है । पर्याप्त मिध्यादृष्टि असंज्ञीमें कृष्ण आदि चार लेश्या होती हैं। पर्याप्त सासादन और मिश्र तथा पर्याप्त अपर्याप्त असंयत संज्ञीमें छह लेश्या होती हैं । भोगभूमि में निर्वृत्यपर्याप्त असंयत में कापोतका जघन्य होता है । और पर्याप्त अवस्था में मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टीके तीन शुभलेश्या होती हैं। क्योंकि भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होनेपर तीन शुभलेश्याओं में ही आते हैं ।
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इन ऊपर कहे तिथंच जीवों में से बादर, सूक्ष्म, पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, नित्यनिगोद, चतुर्गति निगोद, प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित, प्रत्येक, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञ पंचेन्द्रिय उन्नीस प्रकारके तियंच लब्ध्यपर्याप्तक और इन उन्नीस प्रकारके लब्ध्यपर्याप्तकों से अथवा तिथंच पर्याप्तकोंसे और पर्याप्त अथवा अपर्याप्त कर्मभूमियोंसे, इन सब मिथ्या
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