Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सामायिकच्छेदोपस्थापन संयमद्वयं प्रमत्ताप्रमतापूर्व्वानिवृत्तिकरणगुणस्थान चतुष्टयदोळमक्कुमल्लि प्रमत्तगुणस्थानदो देवगतियुताष्टाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं देवगतितीयुत नवविंशति प्रकृतिस्थानमुं बंधमक्कुमप्रमत्तसंयत गुणस्थानदोळ मपूर्व्वं करणषष्ठभाग पय्र्यंतं देवगतियुताष्टाविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीयुतनवविंशति प्रकृतिस्थानमुं देवगत्याहारकयुतत्रिंशत्प्रकृतिस्थानमुं देवगतितीर्थहारयुतै कत्रिशत्प्रकृतिस्थानमुं नालकुं बंधमप्पुवु । अपूर्वकरणचरमभागं मोदगोंडु अनिवृत्ति- ५ करणनोलमेकप्रकृतिस्थानं बंधमक्कुं । यथाख्यात संयमदोळं सूक्ष्मसां पराय संयमदोळं सुंद
पेदपरु |
परिहारविशुद्धिसंयमं प्रमत्ताप्रमत्तसंयत रोळेयक्कुमप्युदरिदं परिहारे नास्ति चरमपदं पेप | अल्लि देवगतियुताष्टाविशति प्रकृतिस्थानमुं । देवगतितोर्थयुतनर्वाविंशतिप्रकृतिस्थानमुं । परिहारविशुद्धिसंयमि प्रमत्तनोळक्कुं । देवगतियुताष्टाविशत्यादि चतुःस्थानंगळ - १० प्रमपरिहारविशुद्धि संयमियोळक्कुं । २८ । २९ । ३० ॥ ३१ ॥
परिहारविशुद्धि संयमदोळु श्रेण्यारोहणमिल्लप्पुदरिदं । चरमपदमेकप्रकृतिस्थानं बंधमिल्ल ||
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अंतिमठाणं सुहुमे देसाविरदीसु हारकम्मं वा ।
चक्खूजुगले सव्वं सगसग णाणं व ओहिदुगे || ५४८ ॥
अंतिमस्थानं सूक्ष्मे देशाविरत्योराहारकार्म्मणवत् । चक्षुर्युगळे सर्व्वं स्वस्वज्ञानवदद्वि ॥
शमानंतरमाविर्भवतीत्यर्थः । तथाख्यातमिति वा यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात् । तत्राद्यसंयमद्वये प्रमत्ते देवगतियुताष्टाविंशतिक देव गतितोर्थयुत विशति द्वे । अनमत्तापूर्वकरण षष्ठभागांते तद्वयं च देवगत्याहारकद्विकद्वययुतत्रिंशत्क देवगतितीर्थाहारयुतै कत्रिंशत्के च सप्तमभागेऽनिवृत्तिकरणे चैककं । परिहारविशुद्धी २० प्रमत्ताप्रमत्तयोः सामायिकोक्तानि द्वे चत्वारि, नात्र श्रेण्यारोहणाभावादेकैकमस्ति ॥५४७॥
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मोहका उपशम या क्षय होनेके अनन्तर प्रकट होनेसे उसे अथाख्यात कहते हैं । अथवा उसे तथाख्यात भी कहते हैं। क्योंकि जैसा आत्माका स्वभाव है वैसा ही इसका स्वरूप कहा है । इनमें से सामायिक और छेदोपस्थापना संयम में प्रमत्त गुणस्थान में देवगति सहित अठाईस और देवगति तीर्थंकर सहित उनतीस ये दो बन्धस्थान हैं । अप्रमत्त और अपूर्व- २५ करणके षष्ठ भाग पर्यन्त उक्त दोनों तथा देवगति आहारकद्विक सहित तीस और देवगति, तीर्थकर आहारकद्विक सहित इकतीस ये चार स्थान होते हैं । अपूर्वकरणके सातवें भाग और अनिवृत्तिकरण में एक प्रकृतिक एक ही बन्धस्थान है इस तरह प्रथम दो संयमों में पाँच बन्ध स्थान हैं ।
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परिहारविशुद्धि में प्रमत्त और अप्रमत्तमें सामायिक में कहे दो और चार स्थान हैं । ३० यहाँ एकबन्धक स्थान नहीं है क्योंकि परिहारविशुद्धिवाला श्रेणिपर आरोहण नहीं कर
सकता ||५४७॥
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