Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पुढवी आऊ तेऊ वाऊ पत्तेय वियलसण्णीणं ।
सत्तेण असत्थं थिरसुहजसजुम्मट्ठभंगा हु ॥५३५।। पृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकविकलासंज्ञिनां । शस्तेनाशस्तं स्थिरशुभयशोयुग्माष्ट भंगाः खलु ॥
पृथ्व्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पति द्वींद्रियत्रोंद्रिय चतुरिंद्रियासंजिपंचेंद्रियंगळ अविरुद्ध भावि भवजातंगळ पंचविंशति षड्विशत्येकान्नत्रिंशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळ । २५ । २६ । २९ । ५ ३०। शस्तेनाशस्तं बंधमेति त्रसबादरपर्याप्तादि यथायोग्यप्रशस्तप्रकृतियोडने दुभंगानायाद्यप्रशस्तप्रकृतियुं बंधनेय्दुगुमंतैरिददोडं स्थिरशुभयशोयुग्माष्टभंगाः खलु स्थिरास्थिरशुभाशुभयश. स्कीय॑यशस्कीत्तियुग्मत्रयैकतरबंधकृतभंगंगळे टेटप्पुवु २५ / २६ | २९ | ३० यितु पृथ्वीकाय
८८८८ बादरपर्याप्तयुतपंचविंशति प्रकृतिबंधस्थानमुं आतपयुतड्विशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमुद्योतयुत षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमप्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृति-बंधस्थानमुमुद्योतयुत-षड्विंशति- १० प्रकृतिबंधस्थानमुं तेजस्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं वायुकायबावरपर्याप्तयुत पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं प्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयुत पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानमुमुद्योतयुत ड्वशतिप्रकृतिबंधस्थानमुं द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तयुतैकान्लत्रिशतत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानद्वयंगळुमिविनितुमष्टाष्टभंगंगळनुळ्ळवप्पुबुदत्यं ॥ शेषतिथ्यंकपंचेंद्रियपर्याप्त युतसंज्ञियोळं मनुष्यगतिपर्याप्तयुतमनुष्यकर्मपददोळमेकान्नत्रिशत्रिंशत्प्रकृतिबंधस्थानंगळोळ १५ भंगंगळं पेळ्दा भंगंगळु मिथ्यादृष्ट्यादि गुणस्थानंगळोळिनितिनितु भंगंगलेदु पेळ्दपरु :
पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिद्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रियाणामविरुद्धभाविभवजातपंचविंशतिकषड्विंशतिकैकान्नत्रिंशत्त्रिशत्कानां त्रसबादरपर्याप्तादियथायोग्यप्रशस्तदुर्भगानादेयाद्यप्रशस्तन बंधमेति । तेन स्थिरशुभयशोयुग्मकृतभंगाः खल्वष्टावष्टौ भवंति २५ २६ २९ ३० । पृथ्वीकायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकमातपयुत
८ ८ ८ ८ षड्विंशतिकं उद्योतयुतषड्विंशतिकं अप्कायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकमुद्योतयुतषड्विंशतिक तेजस्कायबादर- २. पर्याप्तयुतपंचविंशतिकं वायुकायबादरपर्याप्तयुतपंचविंशतिकं प्रत्येकवनस्पतिपर्याप्तयुतपंचविंशतिकं उद्योतयुत
पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति, दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंक्षि पंचेन्द्रिय जीवके भविष्यमें जिन भवोंमें जन्म ले सकते हैं उनके अनुकूल पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीसके बन्धस्थानों में त्रस-बादर पर्याप्त आदि यथायोग्य प्रशस्त और दुर्भग २५ अनादेय आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। किन्तु स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश कीर्ति-अयशःकीर्ति इन तीन युगलोंमें-से एक-एकका बन्ध होता है।
अतः इन तीन युगलोंकी प्रकृति बदलनेसे आठ-आठ भंग होते हैं। अर्थात् पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीसमें से प्रत्येकके आठ भंग होते हैं। पृथ्वीकाय बादरपर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, आतप अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, अप्काय बादर पर्याप्त ३० सहित पच्चीसका स्थान अथवा उद्योत सहित छब्बीसका स्थान, तेजस्काय बादर पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, वायुकाय बादर पर्याप्त सहित पच्चीसका स्थान, प्रत्येक वनस्पति
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