Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गो० कर्मकाण्डे
प्रकृतिबंधस्थानं मनुष्यापर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । २५ । ए। प | बिति च प म । अ । मी मनुष्या
पर्याप्त पंचविंशतिप्रकृतिबंधस्थानद मेलण षविशति प्रकृतिबंधस्थानं एकेंद्रियपर्याप्तं एकेंद्रियपर्याप्तयुतमे यक्कु में तें दोर्ड मनुष्यापर्याप्तयुत पंचविशति प्रकृतिस्थानदो त्रासापर्य्याप्त मनुष्यगतिपंचेंद्रिय जातिसंहननांगोपांगगळे व षट्प्रकृतिगळं कळेदु स्थावरपर्याप्ततियग्गति५ एकेंद्रियजाति उच्छ्वासपरघातगळेब षट्प्रकृतिगळुमनातपनाम मुमनतेचं प्रकृतिगळं कूडिदोडी षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थान मेकेंद्रियपर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । मल्लि आतपनाममं कळेदुद्योतनाममं कूडिदोडी षड्विंशतिप्रकृतिबंधस्थान मुमे केंद्रियपर्याप्तयुतबंधस्थानमक्कु । २६ । ए । प । मी एकेंद्रियपर्याप्तयुत षड्वंशतिप्रकृतिबंधस्थानद मेलणष्टाविंशतिद्रकृतिबंधस्थानं सुरनरकगतिभ्यां संयुक्तं देवगतिनरकगतिगोळदं कूडि उदय कुमदें तें दोडे तैजसद्विकमुमगुरुलघुद्विकमुं १० वर्णचतुष्कर्मु निर्माणनाममुमें ब नव ध्रुवबंधप्रकृतिगळु त्रसबदरपर्याप्त प्रत्येकशरी रंगलं स्थिरास्थि रंगळोळेकतरमुमं शुभाशुभंगळोळेकतरमुं सुभगमुमादेयमुं यशस्कीर्त्ययशस्कीतिगोळेकतरमुं देवगतियुं पंचेंद्रियजातियुं वैक्रियिकशरीरमुं प्रथमसंस्थानमुं देवगत्यानुपूळ मुं वैशिरांगोपांग सुस्वरमं प्रशस्त विहायोगतियुमुच्छ्वासमु परघातमुमितु देवगतियुताष्टाविशतिप्रकृतिबंधस्थानमकुं । मत्तं नव ध्रुवबंधप्रकृतिगळे त्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकशरीरास्थिरा १५ शुभदुब्र्भगानादेयायशस्कीत्तिनरकगतिपंचेंद्रियजातिवेक्रियिकशरी रहुंड संस्थान नरकगत्यानुपूव्यं
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तिर्यग्गतिमपनीय मनुष्यगतौ निक्षिप्तायां तन्मनुष्यापर्याप्तयुतं २५ ए प विति च प म अ । तत्र सापर्याप्तमनुष्यगतिपंचेंद्रिय संहननांगोपांगानि षडपनीयस्थावर पर्याप्त तिर्यग्गत्ये केंद्रियोच्छ्वासपरघातेषु षट्स्वातपे च निक्षिप्तेषु षड्विंशतिक मे केंद्रियपर्याप्तयुतं । पुनः आतपमपनीयोद्योते निक्षिप्तेऽपि तदेव २६ ए प । अष्टाविशतिकं तु नवध्रुवत्रसवादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिर स्थिरैकतरशुभाशुभ कत र सुभगा देययशस्कीर्त्य यशस्कीर्त्ये कतर देव२० गतिपंचेंद्रियवै क्रियिकप्रथमसंस्थान देवगत्यानुपूर्व्यवैक्रियिकांगोपांग सुस्वरप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वास परघातं तद्देवगतियुतं नवध वत्र सबादरपर्याप्तप्रत्येकास्थिरा शुभदुर्भगानादेयायशस्कीतिनरकगतिपचेंद्रियवै क्रियिकशरीर हुंडर्सस्थाननरकगत्यानुपूर्व्यवैक्रियिकांगोपांगदुःस्व राप्रशस्त विहायोगत्युच्छ्वासपरघातं तन्नरकगतियुतं २८ देनि ।
फिर मनुष्यगति सहित पच्चीसके स्थानमें त्रस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, पाटिका संहनन, औदारिक अंगोपांग ये छह प्रकृतियाँ घटाकर स्थावर, पर्याप्त, २५ तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, उच्छवास, परघात, और आपको मिलानेपर एकेन्द्रिय पर्याप्तयुत छब्बीसका स्थान होता है । इनमें से आतप घटाकर उद्योत मिलानेपर भी एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित छब्बीसका बन्धस्थान होता है । इस तरह छब्बीस प्रकृतिरूप दो स्थान हुए । आगे अठाईस प्रकृतिरूप स्थान कहते हैं
ध्रुवबन्धी, त्र, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर - अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से ३० एक, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, अयशःकीर्ति में से एक। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, प्रथम संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, परघात इन अट्ठाईसरूप देवगति सहित अठाईसका बन्धस्थान होता है । पुनः ध्रुवबन्धी, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकीर्ति,
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