Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 2
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
कर्णाटवृत्ति जीवतस्वप्रदीपिका
७१७
यो सामान्यमोहनीयोदयस्थानप्रकृतिसंख्या साधक चतुःकूटंगळोळु मिथ्यात्वप्रकृतियं कूडदोडे अनंतानुबंधित मिथ्यादृष्टिर्ग चतुः कूटंगळप्पुवृ । संदृष्टि :
--
१
१
Food Bub
२ २२ १११
२२ १११
२२ १११ ४४४४
२२ १११ ४४४४
४४४४
१
. १
१
ई नाकु कू टंगळोळु मिथ्यात्वप्रकृतियं कळेबोर्ड सासादनंगे चतुरुदयकूटंगळवु । संदृष्टि
मि थ्या
२ २।२
१ । १ । १ ४४४४ मि १
४४४४
१
२
२२
१११
४४४४
यी नाकुं कूटंगळोल मिश्रप्रकृतियं कूडि मोहनीयोदय कूटंगळ नाकप्पुव । आ नाल्कुं स्थानंगळगे संदृष्टि
१
२२
१११
४४४४
मिथ्यात्वे युतेऽनंतानुबंधियुते मिथ्यादृष्टेर्भवंति -
१
२ । २
१ । १ । १ ४४४४
१
Jain Education International
एषु मिथ्यात्वेऽपनीते सासादनस्य
२
२ । २
१ । १ । १
४४४४
एषु मिश्रप्रकृति निक्षिप्यानं तानुबंधिचतुष्केऽपनीते मिश्रस्य
१
२ २
१११
४४४४
१
२।२
१ । १ । १
४४४४
अनंतानुबंधिकषायचतुष्कमं कटदोर्ड मिश्र
——
१ २ । २
१ । १ । १ ४४४४
१
१
२।२
१ । १ । १ ४४४४
o
२२
१११
४४४४
For Private & Personal Use Only
०
२।२
१ । १ । १ ४४४४ १
कूट के आकार रचना की जाती है। उसमें सबसे नीचे एक मिध्यात्वका अंक एक लिखा । उसके ऊपर अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार कषायोंके चार जगह चार-चारके अंक लिखे । १० इनमें से जहाँ जिसका उदय हो वहाँ उसका जानना । उसके ऊपर तीन वेदों में से तीन जगह एक-एक अंक लिखे । जिसका उदय जहाँ हो सो जानना । उसके ऊपर दो युगलों में से एकएक प्रकृतिका उदय, उनके दो जगह दो-दोके अंक लिखे । सो जिन हास्य रति, या अरति, शोकका उदय पाया जाये वहाँ वही जानना । उसके ऊपर प्रथम कूट में भय - जुगुप्सा । दूसरे कूट में केवल भय, तीसरे कूट में जुगुप्सा । और चौथे कूटमें दोनोंका अभावरूप शून्य १५ जानना । इसके लिए चारों कूटोंमें क्रमसे दो, एक, एक और शून्य लिखा। इस तरह चार कूट किये। प्रथम कूट में दस प्रकृतिरूप उदयस्थान जानना। दूसरे और तीसरे में नौ-नौ प्रकृतिरूप उदयस्थान है और चौथे कूट में आठ प्रकृतिरूप उदय स्थान है । सो ये चारों कूट तो अनन्तानुबन्धी सहित मिध्यादृष्टि गुणस्थानके जानना । इन चारोंमें-से मिध्यात्वको हटा देने पर सासादनके चार कूट होते हैं । [ कूटोंकी रचना ऊपर सं . टीका में देखें ] |
o
२ । २
१ । १ । १
४४४४
२०
www.jainelibrary.org