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(४) परंतु आ० हरिभद्रसूरिजीन ' महानिशीथसूत्र का उद्धार किया उस सूत्रकी संस्कृत प्रशस्तिमें समकालीन आचायोंके नाम दिये हैं उनमे आ० हरिभद्रमूरिजीका नाम है । आ० जिनदासगणि क्षमाश्रमणका नाम है, लेकिन आ० जिनभद्रगणिका नहीं है । अतः 'विविधतीर्थकल्प के उल्लेखको दूसरे पुख्त प्रमाणकी अपेक्षा रहती है।
(५, 'विचारसार में मतांतर है वही वि. सं. ५८५ में आ० हरिभद्रसूरिजीके स्वर्गवासकी बातको कमजोर बनाता है और गाथा ३० में दिया हुआ 'धम्मरओ' विशेषण आ० हारिलके साथ ज्यादः लागू होता है । ' पणतीए 'के स्थानमें 'पणसीए' माना जाय और फिर 'पंचसए पणसीए के स्थानमें मत्तसए पणसीए ' माना जाय तो बराबर कालसंगति हो जाती है। बाकी चाल स्थितिके पाठ भी आ० हारिसूरिजीके साथ सवध रखते है।
(६, 'सूरिविद्या' पाठकी प्रशस्तिमें आ० हरिभद्रसूरजी और आ० समुद्रसूरिजीके पट्टधर आ० मानदेवसूरिजीको एककालीन बताये गये हैं। यह एक सबल पुरावा है। इससे इस घटना आ० समुद्र सूरिजीके शिष्य आ० मानदेवसूरिजीके साथ संबंध रखनेवाली है ऐसा मानना ज्यादा उचित है। यदि प्रशस्ति उसी समयकी हो तो आ. हारिल और आ० मानदेवसूरिजी (दूसरे) समकालीन है यह बात निश्चित हो जाती है परंतु यह प्रशस्ति पश्चात्कालकी हो तो आ० आ० हरिभद्रमूरि और आ० प्रद्युम्नसुरिजीके शिष्य मानदेवसूरिजी (तीसरे) समकालीन है ऐसा मानना पडेगा।