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श्रीहरिभद्रसूरिजी स्वर्गस्थ हुए। वे मोक्षका वे मोक्षका सुख दो। मतान्तरसे ऐसा भी पाठ मिलता है कि वीर सं. १०५५ में श्रीहरिभद्रसूरिजी हुए और वीर नि. सं. १३०० में आ० वप्पभट्टिमूरिजी हुए ।
इन दो गाथाओंसे दो मतातरों के संवत् दिये गये हैं । यदि ' पणतीए ' की जगह ' पणसीए का पाठ मान लिया जाय तो मतातर रहता नहीं है । यहा जो वप्पभट्टसूरिजी का स्वर्गगमन सं. १३०० में बताया गया है वह भी मतातरके रूपमे ही हैं, क्योंकि 'विचारश्रेणि' मे वीर सं. १३०० में, १३६० मे न संचयमें वी. सं. १३२० में और ' तपागच्छीय पट्टावली 'ओमें वीर सं. १३६५ मे आ० वप्पभट्टिसूरिजी का स्वर्गगमन बताया 1
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६. बृहद्गच्छीय सूरिविद्या प्रशस्ति में निम्नलिखित गाथायें हैं'दिनो हरिभद्देण वि, विजाहरवायणाप तया ॥ ३ ॥ चिरमित्त पीइतोला, दिनो हरिभद्दसूरिणा विदओ । विज्ञाहरसाहिणो, मंतो सिरिमाणदेवस्स ॥ ४ ॥ " यह प्रशस्तिका पूर्वापर संबंध और सार इस प्रकार है ।
- आचार्य मानदेवसूरि जो आ० समुद्रसूरिके पट्टधर और हरिभद्रसूरिजी के वयस्य थे, उनके गुरुजीने सं. ५८२ में चंद्र कुलका सूरिमन्त्र दिया और चिरमित्र आ० हरिभद्रसूरिने सप्रेम विद्याधर कुलका सुरिमंत्र दिया लेकिन वे उन मन्त्रपाठोकी समानता, दुष्काल, लोगोंका संहार और रोगके कारण मन्त्रको भूल गये और पीछेसे उन्होंने गिरनार पर तप करके श्री सीमंधरस्वामीने उपदिष्ट किया हुआ मंत्र अंबिकादेवीको प्रसन्न करके प्राप्त किया आदि ( गाथा १ - १२)