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७ बोल पृष्ठ ३०४ से ३०५ तक। धन धान्यादिक ने आदरे नहीं ( उत्त० ० ६ गा० ८)
८बोल पृष्ठ ३०५ से ३०६ तक। अविनीत ने मृग कह्यो ( उत्त० अ० १ गा०५) इति श्री जयाचार्य कृते भ्रमविध्वंसने पुण्याऽधिकारानुक्रमणिका समाप्ता ।
आश्रवाऽधिकार।
१ बोल पृष्ठ ३०७ से ३०८ तक । ५ आश्रय (ठा० ठा० ५ उ०१) (सम० स०५)
२ बोल पृष्ठ ३०८ से ३०६ तक । ५ अश्रावांने कृष्ण लेश्या ना लक्षण कह्या (उत्त० अ० ३४ गा० २१-२२)
३ बोल पृष्ठ ३०१ से ३११ तक। क्रिया भेद (ठा० ठा० २ उ०१)
४ बोल पृष्ठ ३११ से ३११ तक। मिथ्यात्व नों लक्षण ( ठा० ठा० १०)
५ बोल पृष्ठ ३१२ से ३१२ तक । प्राणतिपात ने विषे जोव (भग० श० १७ उ०२)
६ बोल पृष्ठ ३१२ से ३१४ तक । दश विध जीव परिणाम ( ठा० ठा० १२)
७ बोल पृष्ठ ३१४ से ३१५ तक। आठ आत्मा ( भग० श० १२ उ० १०)
८वोल पृष्ठ ३१५ से ३१७ तक । कषाय अनें योग में जीव कह्या छै ( अनुयोग द्वार)