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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
है निष्प्राण क्रिया । प्राण भरती है चेतना । जिस क्रिया या प्रवृत्ति के साथ चेतना जुड़ गई, वह क्रिया प्राणवान् है । जिस क्रिया के साथ चेतना न जुड़े, वह क्रिया प्राणवान् नहीं होती । वह क्रिया का ढांचा मात्र है, उसमें प्राण नहीं है । शरीर का पूरा ढांचा पड़ा है, हाथ - पैर आदि सारे अवयव ठीक दिखाई दे रहे हैं, एक भी अवयव सड़ा हुआ नहीं है, बर्फ से ढका हुआ या रसायनों में उलझा हुआ शरीर पड़ा है । लम्बे समय से जैसा था, वैसा का वैसा पड़ा है लेकिन उसमें प्राण नहीं है और प्राण नहीं है तो कुछ भी नहीं है । पिरामिड में हजारों वर्षों पुरानी ‘ममियां' सुरक्षित हैं, हजार वर्ष पहले जैसी थीं, वैसी की वैसी आज हैं। लेकिन कमी है प्राण की । यह पिरामिड की विशेषता है कि हम उसमें दूध रख दे तो वह खट्टा नहीं होगा । मुरब्बे आदि में सड़ान पैदा नहीं होगी। सब कुछ वैसा का वैसा रह जाता है, लेकिन उसमें चेतना या प्राण नहीं होता।
प्रश्न है प्राण और चेतना का । जिस क्रिया या प्रवृत्ति के साथ चेतना नहीं जुड़ी, उसमें प्राण की प्रतिष्ठा नहीं हुई । जब तक प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक मूर्ति को भी पूजा नहीं जाता । जो लोग मूर्ति-पूजा में विश्वास करते हैं, वे उसी मूर्ति की पूजा करते हैं, जिसमें प्राण-प्रतिष्ठा हो जाती है। चेतना का योग क्रिया में प्राण-प्रतिष्ठा कर देता है । जो भी करें, चेतना उसके साथ जुड़ी रहे । इससे क्रिया में प्राण आ जाता है। जहां प्राण आया वहां सफलता आ गई। जहां प्राण नहीं है वहां सफलता भी नहीं है । प्राणयुक्त क्रिया है भावक्रिया और प्राणमुक्त क्रिया है द्रव्यक्रिया । ध्यान के दो प्रकार
शिष्य ने पूछा – गुरुदेव ! मैं दिनभर में आधा घंटा ध्यान करता हूं, कभी-कभी एक घंटा ध्यान कर लेता हूं। शेष तेईस घंटे का समय तो दूसरे कामों में ही बीतता है । वह एक घंटा का ध्यान तेईस घंटे को कैसे प्रभावित करेगा? हम इसकी परीक्षा कैसे करें ? परीक्षा का अर्थ है बल और अबल को जांचना । किसका बल ज्यादा है ? तेईस घंटे का ज्यादा है या एक घंटे
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