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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
निषेधात्मक भाव की जितनी लेश्याएं हैं, कृष्ण, नील और कापोत- इन लेश्याओं के जो पुद्गल हैं, उनके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हैं, वे अनिष्टकर होते हैं। जब निषेधात्मक भाव और अशुभ पुद्गल हमें प्रभावित करते हैं तब व्यक्ति बीमार बनता है । लेश्या की गंध हमें प्रभावित करती है। गंध का प्रभाव एनीमल ब्रेन पर होता है । यह ब्रेन का एक हिस्सा है, जिसे पाशविक मस्तिष्क कहा जाता है। अप्रशस्त लेश्याओं की गंध बहुत खराब होती है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की गंध इतनी खराब होती है कि आदमी उसे सहन ही नहीं कर पाता। यह एक सुविधा है कि वह गंध बहुत सूक्ष्म है और आदमी उसे पकड़ नहीं पाता । यदि स्थूल गंध इतनी खराब हो तो आदमी एक क्षण भी जी नहीं पाए । प्रकृति ने एक व्यवस्था कर दी है-व्यक्ति अमुक फ्रिक्वेंसी या अमुक मात्रा में ही गंध को ग्रहण कर पाता है । वह सूक्ष्म गंध को ग्रहण ही नहीं कर पाता। हमारे चारों और गंध ही गंध है पर हम उसे पकड़ नहीं पाते। हम केवल स्थूल बात को पकड़ने में ही समर्थ होते हैं।
भाव से उत्पन्न होती है बीमारी
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हमारी शरीर रचना भी ऐसी ही है। इन्द्रियां केवल स्थूल को ही अपना विषय बना पाती है। यदि इन्द्रियां सूक्ष्म को पकड़ने लग जाएं तो हम विचित्र स्थिति में फंस जाएं। हमारे चारों ओर कोलाहल हो रहा है। वह हमें सुनाई नहीं देता । यदि व्यक्ति इस कोलाहल को सुनने लगे तो पागल बन जाए । हमारे शरीर के भीतर भी कितना कोलाहल है ! वह भी हमें सुनाई नहीं देता । हमें स्थूल आवाज ही सुनाई देती है। यह बहुत अच्छी व्यवस्था है अन्यथा व्यक्ति का जीना दूभर हो जाए। इसी प्रकार गंध भी बहुत प्रबल है | चाहे हम उसको पकड़ न पाएं पर वह हमारे मन और शरीर को प्रभावित अवश्य करती है। ईर्ष्या का भाव मन में आया, घृणा और द्वेष का भाव मन में आया, व्यक्ति चिड़चिड़ा बन जाएगा, वह मन ही मन घुटेगा, जलता रहेगा। उस अवस्था में अप्रशस्त गंध अपना जबरदस्त प्रभाव डालेगी, शरीर और मन को बीमार बना देगी। आजकल न जाने कितने लोग इन भावों के कारण
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