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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
होगा? अमुक व्यक्ति क्या कहेगा? समाज क्या कहेगा? यह लोक-लाज या समाज का भय व्यक्ति को बचाता है। जिस व्यक्ति में पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान की भावना नहीं होती, वह बहुत खतरनाक बन जाता है। जिस व्यक्ति के मन में यह भावना होती है-मेरी प्रतिष्ठा पर, मेरे कुल और परिवार की प्रतिष्ठा पर, मेरे मित्रों की प्रतिष्ठा पर कहीं धब्बा न लग जाए, वह व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है। यह प्रतिष्ठा का भय व्यक्ति को बहुत बचाता है। एक मुनि भी यह सोचता है-व्यवहार की दृष्टि से कहीं ऐसा कोई काम न हो जाए, जिससे धर्मसंघ पर कोई आंच आए, जनापवाद की स्थिति बन जाए। यह भय एक मुनि को उन्मार्ग पर नहीं जाने देता। उपयोगिता भय की
व्यवहार की दुनिया में भय की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। व्यवहार के जगत् में रचनात्मक भय व्यक्ति को बचाता है, सुरक्षा करता है। व्यक्ति स्वयं अपूर्ण है। उसे अपनी सीमा का बोध रहना चाहिए। पूर्णता की बात पूर्णता की भूमिका में ही सोची जा सकती है। अपूर्णता की भूमिका में पूर्णता की बात न सोचें। जैसे जैसे अपूर्णता की भूमिका का अतिक्रमण करें वैसे वैसे पूर्णता की दिशा में चलें। हम अभय का सम्यक् परिप्रेक्ष्य में अंकन करें। व्यक्ति कार्य तो गलत करता चला जाए और अभय की बात करता चला जाए, यह एक विडंबना है। किसी व्यक्ति ने कहा - अरे भाई! तुम गलत काम कर रहे हो, यह अच्छा नही है। तुम्हें उपालंभ आएगा, दण्ड मिलेगा। वह व्यक्ति इस बात को अनसुना करते हुए कह देता है-मैं किसी से नहीं डरता। तुम कौन होते हो मुझे कहने वाले। एक ओर गलती करता चला जाए दूसरी ओर यह कहे-मैं किसी से नहीं डरता । यह दोहरी मूर्खता है। वस्तुतः अभय वह है, जो गलती न करे। गलती न करने वाला व्यक्ति ही यह कह सकता है मैं किसी से नहीं डरता। एक ओर चोरी-डकैती करे, लूट-खसोट करे, दूसरों को सताए, दूसरी ओर अभय होने का दावा करे, यह सीनाजोरी है, दोहरी मूर्खता है।
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