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अपना दर्पणः अपना बिम्ब
व्यक्ति सोच रहा था - कैसा विचित्र आदमी है। सामने मौत खड़ी है और यह अत्यंत निश्चिन्तता से अपना काम कर रहा है। क्या इसे मौत का भी डर नहीं है?
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महाकवि ने पत्र पूरा किया। उस व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा - महाशय ! मैंने अपना काम कर लिया है। अब आप अपना काम कर सकते हैं। वह व्यक्ति महाकवि के चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा- मैं आपको नहीं मार सकता। मैंने बहुत बड़ी मूर्खता की है। मैं यह सोच भी नहीं सकता था - ऐसा भी कोई व्यक्ति हो सकता है, जो मौत को सामने देखकर अविचल और अभय बना रहे। आपकी शान्त आभा और अभय किसी भी क्रूर व्यक्ति के दिल को बदल सकती है।
डर एक ही है
जो व्यक्ति ऐसा होता है, उसे मारने की ताकत किसी में भी नहीं है । जो मरना जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता। लोग उसे ही मारने की बात सोचते हैं, जो मरना नहीं जानता, मरना नहीं चाहता, मौत के नाम से ही डरता है । इस भाषा में भी कहा जा सकता है - जो व्यक्ति जीना जानता है, उसे कोई नहीं मार सकता है। जिसके मन में भय नहीं है, जो अभय है, वही व्यक्ति अच्छा जीवन जीना जानता है, वही व्यक्ति मृत्यु की श्रेष्ठ कला को जानता है।
अभय का मूल है मूर्च्छा का अभाव । जिस व्यक्ति के मन में अपने शरीर के प्रति ममत्व नहीं है, उस व्यक्ति को किसी का डर नहीं होगा । वह न चूहे से डरेगा, न बिल्ली से डरेगा, न बंदर से डरेगा । वास्तव में डर एक ही है और वह है मौत का डर। अन्य जितने भी डर हैं, वे सब इसकी प्रतिच्छाया या प्रतिबिम्ब हैं। हम प्रतिबिम्ब को पकड़ना चाहते हैं किन्तु बिम्ब को नहीं पकड़ते। जब तक बिम्ब को नहीं पकड़ा जाता तब तक प्रतिबिम्ब को नहीं मिटाया जा सकता। बच्चा जल में सूरज या चांद के प्रतिबिम्ब को पकड़ना चाहता है पर वह कभी सफल नहीं होता । चिड़िया अपने ही प्रतिबिम्ब से
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