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अपना दर्पणः अपना विम्ब
वाले व्यक्ति में परिवर्तन क्यों नहीं आता? उसमें व्रत-चेतना का विकास क्यों नहीं होता? साधना शुरू करते ही परिवर्तन नहीं आ जाता। वह मात्र परिवर्तन की दिशा में प्रस्थान है। परिवर्तन तब आता है जब व्यक्ति अंतःस्थिति की भूमिका को उपलब्ध हो जाता है। जब अंतःस्थिति आती है, जीवन में व्रत अपने आप आ जाता है। प्रेक्षाध्यान की साधना करने वाले अनेक व्यक्तियों की स्थिति मेरे सामने है। अनेक साधक ऐसे हैं, जो अंतर्बोध की भूमिका से अंतःस्थिति की भूमिका में प्रविष्ट हो गए हैं। उनका जीवन व्यवहार और आचरण इस स्थिति का साक्ष्य है। वह व्यक्ति, जो निरन्तर ध्यान साधना में रत रहता है, अंतःस्थिति की भूमिका को उपलब्ध हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में व्रत या चरित्रनिष्ठा स्वतः उद्भूत हो जाती है। लक्ष्य है समाधि की उपलब्धि ____ हम एक लक्ष्य बनाएं । सबसे पहले अन्तर्बोध की भूमिका का स्पर्श करें किन्तु उस पर अटके न रहें। यदि हम केवल श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा आदि प्रयोग ही करते रहे तो दस वर्ष तक भी दूसरी भूमिका प्राप्त नहीं होगी। वह भूमिका तब उपलब्ध होती है जब हम एक चैतन्य केन्द्र पर दीर्घकालीन ध्यान करें। हठयोग का सूत्र है
धारणां द्वादशगुणिता ध्यानं, ध्यानं द्वादशगुणितं समाधिः ।
धारणा को बारह से गुणा करो, ध्यान की स्थिति आ जाएगी। ध्यान को बारह से गुणा करो, समाधि की स्थिति आ जाएगी। हमें पहुंचना है समाधि की भूमिका में। जिन व्यक्तियों में विशेष जिज्ञासा है, विशेष योग्यता और क्षमता है, कुछ होने की अभीप्सा और अर्हता है, उनको केवल धारणा पर नहीं अटकना चाहिए, ध्यान और समाधि की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति स्वयं भी लाभ उठा सकते हैं, दूसरों के लाभ में भी निमित्त बन सकते हैं।
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