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अपना दर्पणः अपना बिम्ब एक ही लक्ष्य होता है पार्टी को जिताना। इसके लिए एक दल दूसरे दल पर प्रहार करता है, उसे निकम्मा और भ्रष्ट घोषित कर देता है किन्तु स्वयं कैसा है, यह नहीं देखता। जब प्रश्न स्वयं का आता है तब उसे मौन रहना पड़ता है। मूल प्रश्न यह है-किसी भी राजनीतिक दल ने सदाचार सिखाने का प्रयत्न किया ही नहीं। किसी नेता ने सदाचार का आंदोलन नहीं चलाया। जहां मूल में ही इतनी भूल चल रही है-न सदाचारी व्यक्तित्व बनाने का प्रयत्न और न ही सदाचार की प्रतिष्ठापना के लिए चल रहे आंदोलन से जुड़ने का प्रयत्न, वहां सदाचार की कल्पना कैसे की जा सकती है? आश्वासन की राजनीति
ऐसा लगता है-कोई भी राजनैतिक दल इस दिशा में सोचने को ही तैयार नहीं है। राजनीति के मुखिया लोग किसी नैतिक आंदोलन से जुड़े और अणुव्रती बने, यह स्थिति आज कहां है? मानसिक संताप से ग्रस्त व्यक्ति प्रेक्षाध्यान का प्रयोग तनाव मुक्ति के लिए करते हैं किन्तु सदाचारी कैसे बने, इस दिशा में कोई नहीं सोचता । व्यक्ति यह आवश्यकता ही अनुभव नहीं करता-प्रशासन या किसी भी क्षेत्र में जाने से पहले सदाचार की शिक्षा लेना अपेक्षित है। जब तक यह अपेक्षा ही अनुभूत नहीं हो तब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाया जाने वाला कोई भी अभियान कितना सफल हो सकता है। इस संदर्भ में सत्ता पक्ष का उम्मीदवार हो या विपक्ष का, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसका क्या आश्वासन है-आज जो सत्ता में नहीं है, कल सत्ता में आने के बाद वह उतना ही ईमानदार और सदाचारी रहेगा, जितना कि एक शासक को होना चाहिए । उसका सारा मंत्रिमंडल ईमानदार रहकर देश का शासन चलाएगा, जनता और समाज के हित को प्राथमिकता देगा। क्या यह विश्वास किया जा सकता है? प्रत्येक उम्मीदवार स्वार्थ के आश्वासन देता है-हम यह कर देंगे, हम वह कर देंगे। आज की राजनीति कोरे आश्वासनों की राजनीति रह गई है । सभी पार्टियों के चुनाव घोषणापत्रों में आश्वासनों के अंबार लगे होते हैं पर उनमें वास्तविकता बहुत कम होती है। यह वर्तमान
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