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अभय की अनुप्रेक्षा यथार्थदृष्टि ___हम भय और अभय को यथार्थदृष्टि से देखें। अभय वही हो सकता है, जिसने अपने आपको साध लिया है। कहीं कोई गलती नहीं रही, कमजोरी नहीं रही । सर्वथा अप्रमत्तता की स्थिति में ही अभय घटित हो सकता है। एक ओर गलतियां करते चले जाना, दूसरी ओर अभय होने का दावा करना, अपने आपको धोखा देना है । हम इस धोखे में न जाएं, यथार्थ को स्वीकार करें। जैन धर्म यथार्थवादी दर्शन है। जैन धर्म में विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह स्वीकार करता है-जब तक मोहनीय कर्म विद्यमान है, मोहनीय कर्म की सारी प्रकृतियां विद्यमान हैं तब तक भय का अस्तित्व रहेगा। क्रोध, मान, माया और लोभ रहे, घृणा, हास्य, रति-अरति, वेद, कामवासना-ये सब रहें और भय न हो, यह संभव नहीं है। जिस व्यक्ति को अभय होना है, उसे सबसे पहले कषाय को कम करने की साधना करनी चाहिए। अभय और कषाय
अभय की अनुप्रेक्षा करने वाला व्यक्ति इस शब्दावली का बार-बार अनुचिंतन करता है-'अभय का भाव पुष्ट हो रहा है, भय का भाव क्षीण हो रहा है।' इसकी पृष्ठभूमि में ये सारी ध्वनियां प्रतिध्वनित होनी चाहिए-'क्रोध का भाव क्षीण हो रहा है, क्षमा का भाव पुष्ट हो रहा है। लोभ का भाव क्षीण हो रहा है, संतोष का भाव पुष्ट हो रहा है। मान और माया का भाव क्षीण हो रहा है, ऋजुता और मृदुता का भाव पुष्ट हो रहा है।' इस स्थिति में ही अभय की अनुप्रेक्षा सार्थक हो सकती है। यदि अभय की भावना करें और इन सबकी उपेक्षा करें तो अभय का विकास कैसे संभव होगा? एक ओर क्रोध पुष्ट होता चला जाए, मान प्रबल बनता चला जाए, माया गहराती चली जाए, लोभ अपना जाल बिछाता चला जाए, दूसरी ओर हम अभय की भावना करते चले जाएं तो यह केवल तोता रटन होगी। इसकी कोई सार्थक निष्पत्ति नहीं आ पाएगी। हम इस भ्रम में न रहें-कायोत्सर्ग की मुद्रा में अभय की अनुप्रेक्षा
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