Book Title: Apna Darpan Apna Bimb
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 232
________________ २१५ अभय की अनुप्रेक्षा लड़कर लहुलुहान हो जाती है। शेर भी अपने ही प्रतिबिम्ब को देखकर कुए में कूद पड़ता है। ये सारी लड़ाइयां प्रतिबिम्बों एवं प्रतिच्छायाओं की लड़ाइयां हैं । बिम्ब तक पहुंचा ही नहीं जा रहा है। अभय का मूल है बिम्ब तक पहुंच जाना । अपेक्षित है परिकर्म एक प्रश्न उभरता है-क्या शरीर का परिकर्म नहीं करना चाहिए? हम व्यवहार की दुनियां में जीते हैं, शरीर का उपयोग करते हैं, उससे काम लेते हैं इसलिए यह संभव नहीं है कि शरीर का परिकर्म बिल्कुल छूट जाए। शरीर को चलाना है तो उसकी सार-संभाल भी करना होगा। प्रातःकाल नाश्ता करते हैं, मध्यान्ह और सायं भोजन करते हैं। वह शरीर की सुरक्षा के लिए है, उसका उपयोग करने के लिए है। दिन में अनेक बार पानी पीते हैं। उसका हेतु भी यही है। शरीर पर रेत आकर चिपट जाती है तो उसे भी साफ करते हैं। शरीर बीमार होता है तो दवा भी ले लेते हैं। यह सारा शरीर का परिकर्म है। इस स्थिति में सर्वथा अभय की कल्पना नहीं की जा सकती । बचाता है भय अनेक बार एक प्रश्न आता है-क्या डरना अच्छा नहीं है? भय अच्छा नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता। हमें दो कोणों से सोचना होगा। लक्ष्य है अभय होना किन्तु भय भी किसी अंश में हमारा साथी बना रहेगा। इतना अवश्य हो सकता है कि हम भय को प्रशस्त बना लें, वह अप्रशस्त न रहे । भय बचाने वाला या नियामक बने । आयुर्वेद का यह प्रसिद्ध अभिमत है-यदि किसी व्यक्ति को उन्माद का रोग है, वह पागल बन जाए तो उसका सबसे पहला उपाय है भय । यदि पागल व्यक्ति को डराने वाला मिल जाए तो वह विक्षिप्त कम होगा। पागल आदमी के मन में जिस व्यक्ति का डर समा जाता है, उस व्यक्ति के सामने आते ही वह बिल्कुल सयाना बन जाता है। भय एक दवा है, औषधि है, उपचार है । भय व्यक्ति को निरंतर बचाता रहता है। व्यक्ति बुराई करते समय यह सोचता है यदि यह बात प्रकट हो गई तो क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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