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अपना दर्पणः अपना बिम्ब कैसा बदला लेगा? एक डर पैदा हो जाता है। माया का जाल बिछाने वाला तो डरता ही रहता है। व्यक्ति सोचता है मैंने जो माया का जाल बिछाया है, जो कपट जाल रचा है, वह कहीं प्रकट न हो जाए। यदि वह प्रकट हो गया तो अनर्थ हो जाएगा। दो नंबर के खाते रखने वाले इसीलिए ज्यादा डरते हैं। उनके मन में यह भय बना रहता है-कोई आयकर अधिकारी चेकिंग करने न आ जाए। फर्म पर छापा न पड़ जाए। एक शब्द है माया-मृषा । माया के साथ झूठ जुड़ा हुआ रहता है। उसमें सत्य के प्रकट होने का भय बना रहता है। लोभ भय का मूल जनक है। एक शब्द में कहा जा सकता है-जहां मूर्छा है वहां भय है। यह व्याप्ति बनाई जा सकती है-जितनी जितनी मूर्छा उतना उतना भय। जितनी जितनी अमूर्छा उतना उतना अभय । भय का पहला स्थान
भय का सबसे पहला स्थान है शरीर की मूर्छ । शरीर पर जितना ममत्व है उतना ही भय है। व्यक्ति शरीर को बनाए रखना चाहता है और यहीं से भय का जन्म होता है। अध्यात्म के आचार्यों ने इसीलिए इस बात पर सबसे ज्यादा बल दिया-आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हो तो देहाध्यास को छोड़ो, शरीर की मूर्छा को छोड़ो, कायोत्सर्ग करो। कायोत्सर्ग का एक अर्थ है-शिथिलीकरण, किन्तु यह मूल अर्थ नहीं है। कायोत्सर्ग का मूल अर्थ है-ममत्व का त्याग, ममत्व का विसर्जन । महावीर की साधना-पद्धति के दो महत्त्वपूर्ण शब्द हैं-वोसठ्ठचत्तदेहे-शरीर का विसर्जन करो, शरीर का त्याग करो-उसकी सार संभाल मत करो, शरीर को सजाओ मत, उस पर ममत्व मत करो। शरीर की प्रवृत्तियों का संयम करो। अभय : मूल आधार
ममत्व का विसर्जन और त्याग-यह अभय का मूल आधार है। यह अध्यात्म का पहला बिन्दु है और अभय का भी पहला बिन्दु है। जो व्यक्ति देहाध्यास की भावना से मुक्त हो गया, वह बिल्कुल अभय हो गया। उससे ज्यादा अभय और कोई नहीं हो सकता । यदि अभय को खोजना है, अभय
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