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लेश्या : गंध, रस और स्पर्श
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दें । यह बात डाक्टरों और मेडिकल साइंस पर छोड़ दें, किन्तु क्या भीतर की चीर-फाड़ का काम एक धार्मिक व्यक्ति नहीं कर सकता? क्या आध्यात्मिक चिकित्सा और भाव चिकित्सा का विकास नहीं किया जा सकता? ऐसा हो सकता है किन्तु इसके लिए चिन्तन और मनन की जरूरत है। चढ़ने और उतरने के सोपान भिन्न नहीं होते। क्या आज तक कहीं ऐसी सीढ़ी बनी है, जिसमें चढ़ने के सोपान अलग हों और उतरने के अलग? एक मकान में सुविधा के लिए अनेक सीढ़ियां हो सकती हैं लेकिन जिस सीढ़ी से चढ़ा जा सकता है, उसी सीढ़ी से उतरा जा सकता है। हंसने और रोने वाली आंखें अलग-अलग नहीं होती । मानव जिन आंखों से हंसता है, उन्हीं आंखों से रोता है। क्या ऐसा कभी हुआ है कि दो आंखें रोने के लिए होती हैं और दो आंखें हंसने के लिए ? वैसे ही जो सीढ़ियां चढ़ने के लिए हैं, वे ही उतरने के लिए हैं। केवल पकड़ने की जरूरत है। परीक्षा योग्यता की
गुरु के पास तीन शिष्य आए, प्रार्थना के स्वर में बोले-गुरुदेव ! हम साधना करना चाहते हैं। हमें कोई साधना का सूत्र बताएं ? गुरु ने सोचा-साधना का सूत्र बताने से पहले परीक्षा कर ली जाए। गुरु ने तीनों से एक प्रश्न पूछा-आंख और कान में कितना अंतर है। पहला व्यक्ति बोला-चार आंगुल का। दूसरे ने कहा-कान से आंख ज्यादा काम आती है। आंखों देखी बात बहुत स्पष्ट होती है। आंखों देखी और कानों सुनी बात में बहुत अंतर होता है। तीसरे का जवाब था-आंख से हम देख सकते हैं किन्तु परमार्थ की बात कान से ही सुन सकते हैं। गुरु ने पहले व्यक्ति से कहा - तुम अभी व्यापार करो। तुम्हारा नाप-जोख में रस है। मीटर हाथ में लो और वस्त्रों को नापो। तुम साधना के अधिकारी नहीं हो। दूसरे व्यक्ति से कहा-तुम अभी न्याय का काम करो। लोगों के झगड़े सुलझाओ । आंख द्वारा देखे गए प्रमाण ज्यादा सच होते हैं। तीसरे व्यक्ति से कहा – तुम साधना के योग्य हो । मैं तुम्हें आत्मिक ज्ञान दूंगा, क्योंकि तुम परमार्थ की बात में रस लेते हो।
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