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अपना दर्पणः अपना बिम्ब तो नहीं पनप रहे हैं? ये सारे भाव कृष्ण, नील और कापोत लेश्या के भाव हैं। जब जब ये भाव जागते हैं तब तब शरीर का तंत्र गड़बड़ाता है, मन का तंत्र भी गड़बड़ाता है। भावशुद्धि ज्यादा से ज्यादा कैसे रहे, इस सूत्र को पकड़ें। भावविशुद्धि ही समस्या के समाधान का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। सामंजस्य की समस्या
वर्तमान युग की बहुत बड़ी समस्या है सामाजिक संबंधों के सफल अभियोजन की। आदमी समाज के साथ अपने संबंधों का सफल अभियोजन कैसे करे? जहां सामंजस्य (एडजेस्टमेन्ट) की समस्या है वहां चित्त की समाधि नहीं रहती । अशुद्ध लेश्या और कषाय के भाव प्रबल होते हैं तो व्यक्ति सामाजिक संबंधों को ठीक नहीं रख सकता। सामाजिक संबंधों के सफल अभियोजन में बाधा है कषायजनित आवेग। चार बाधाएं
एक बाधा है क्रोध । जिसका क्रोध प्रबल है, वह सामाजिक संबंधों को सही ढंग से नहीं निभा पाता ।
दूसरी बाधा है-अहंकार । एक व्यक्ति का अहंकार सबको परेशान कर देता है। अहंकार हीनता की वृत्ति को जन्म देता है। व्यक्ति जब अपने से छोटों को देखता है तो अहंकार की भावना जागती है और अपने से बड़ों को देखता है तो हीनता से भर जाता है। जिस व्यक्ति में नील और कापोत लेश्या का परिणमन होता है, वह अहंकार में चला जाता है। तीन व्यक्तियों को साथ में रहना है। उसमें एक व्यक्ति को मुख्य बना दिया जाता है। यह एक व्यवस्था की बात है। जिसको मुखिया बनाया गया है यदि वह अहंकार में चला जाए तो संबंधों का सम्यक् अभियोजन कैसे होगा? संबंधों का सफल अभियोजन तब हो सकता है जब मुखिया व्यक्ति अधिक विनम्र बन जाए और जो मुखिया नहीं हैं, वे समानता की अनुभूति करें ।
तीसरी बाधा है माया । विश्वास और मैत्री को तोड़ने में माया जितनी
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